तप
तप
टिप्पणी :- तैत्तिरीय संहिता १.६.१२.२, ऋग्वेद ८.८९.७ आदि में निम्नलिखित ऋचा प्रकट हुई है –
आ॒मासु॑ प॒क्वमैर॑य॒ आ सूर्यं॑ रोहयो दि॒वि। घ॒र्मं न साम॑न् तपता सुवृ॒क्तिभि॒र्जुष्टं॒ गिर्व॑णसे गिरः(बृ॒हत्-पाठ भेद)।।
इस ऋचा में इन्द्र से प्रार्थना की जा रही है कि जो कच्चा(आम) है, उसके पकने की प्रेरणा दो, सूर्य का द्युलोक में आरोहण करो। जैसे घर्म का साम द्वारा तापन किया जाता है, ऐसे। आम के पक्व में रूपान्तरण में तप के योगदान के संदर्भ में यह एकमात्र संदर्भ नहीं है। ऋग्वेद १०.१६.४ तथा अथर्ववेद १८.२.८ के अनुसार-
अ॒जो भा॒गस्तप॑स॒स्तं त॑पस्व॒ तं ते॑ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते॑ अ॒र्चिः। यास्ते॑ शि॒वास्त॒न्वो॑ जातवेद॒स्ताभि॑र्वहैनं सु॒कृता॑मु लो॒कम्।।
इस मन्त्र में अग्नि से प्रार्थना की जा रही है कि मृतक का जो अज भाग है, उसका तप से तापन करो। छान्दोग्य उपनिषद में सूर्य के उदय के संदर्भ में अज, अवि, गौ, अश्व व पुरुष भक्तियों का उल्लेख आया है। सूर्योदय से पूर्व की अवस्था अज है, सूर्योदय के समय की अवि, मध्याह्न की गौ, अपराह्न की अश्व और अस्त की पुरुष। यह कहा जा सकता है कि अज भक्ति को पकाकर अन्य प्रकार की भक्तियों में रूपान्तरित करना है। आजकल की भाषा में यह पकाना अचेतन या अर्धचेतन मन का चेतन मन में रूपान्तरण हो सकता है। तैत्तिरीय आरण्यक २.९.१ में अजा पृश्नियों द्वारा तप से ऋषि बनने और फिर ऋषि बनकर ऋग्वेद के रूप में पयः आहुतियों की प्राप्ति करने, यजुर्वेद के रूप में घृताहुतियों की, सामवेद के रूप में सोमाहुतियों की और अथर्ववेद के रूप में मधु आहुतियों की प्राप्ति करने का उल्लेख है।
तप और सलिल --
तप के संदर्भ में ऋग्वेद १०.१२९.३ के नासदीय सूक्त में सलिल का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है –
तम॑ आसी॒त् तम॑सा गू॒ळ्हमग्रे॑ ऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम्। तु॒च्छ्येना॒भ्वपि॑हितं॒ यदासी॒त् तप॑स॒स्तन्म॑हि॒नाजा॑य॒तैक॑म्।।
शतपथ ब्राह्मण ११.१.६.१ में इसका स्वरूप इस प्रकार है कि पहले यह आपः सलिल ही था। आपः ने कामना की कि वह प्रजा उत्पन्न करे। उन्होंने तप किया जिससे एक हिरण्मय अण्ड उत्पन्न हुआ। संवत्सर बीतने के पश्चात् उससे प्रजापति उत्पन्न हुए-
आपो ह वा इदम् अग्रे सलिलमेवास। ता अकामयंत। कथं नु प्रजायेमहीति। ता अश्राम्यन्। तास्तपोऽतप्यंत। तासु तपस्तप्यमानासु हिरण्मयमांडं संबभूव। अजातो ह तर्हि संवत्सर आस। तदिदं हिरण्मयमांडं यावत्संवत्सरस्य वेला तावत्पर्यप्लवत। ततः संवत्सरे पुरुष समभवत्, स प्रजापतिः। तस्मादु संवत्सर एव स्त्री वा गौर्वा वडवा वा विजायते। - श. ११.१.६.१
शतपथ ब्राह्मण में ही अन्यत्र आता है कि आपः द्वारा तप करने से पहले सलिल से फेन उत्पन्न हुआ, फेन से मृदा, मृदा से सिकता, सिकता से शर्करा, शर्करा से अयः, अयः से हिरण्य।
तप और स्वः –
ऋग्वेद १०.१५४.२ के प्रेतोपस्थान सूक्त के अनुसार –
तप॑सा॒ ये अ॑नाधृ॒ष्यास्तप॑सा॒ ये स्व॑र्य॒युः। तपो॒ ये च॑क्रि॒रे मह॒स्ताँश्चि॑दे॒वापि॑ गच्छतात्।।
इस ऋचा में कहा जा रहा है कि हे प्रेत, जो पितर तप से अनाधृष्य, आक्रमण से सुरक्षित बन गए हैं, जो तप से स्वः को प्राप्त हो गए हैं, वहां भी तू जा। ऋग्वेद १०.१६७.१ के अनुसार –
तुभ्ये॒दमि॑न्द्र॒ परि॑ षिच्यते॒ मधु॒ त्वं सु॒तस्य॑ क॒लश॑स्य राजसि। त्वं र॒यिं पु॑रु॒वीरा॑मु नस्कृधि॒ त्वं तपः॑ परि॒तप्या॑जयः॒ स्वः॑।।
इस ऋचा के अन्तिम पाद में कहा गया है कि इन्द्र ने तप का परितपन करके स्वः पर विजय प्राप्त की। जैसा कि अन्यत्र टिप्पणियों में कहा जा चुका है, कण्ठ के विशुद्धि चक्र में स्वरों की स्थिति कही जाती है। स्वर व्यञ्जनों जैसी स्थूलता से रहित होते हैं।
तैत्तिरीय आरण्यक २.१४.१ में विभिन्न परिस्थितियों में स्वाध्याय का साम्य तप से स्थापित किया गया है –
तस्य॒ वा ए॒तस्य॑ य॒ज्ञस्य॒ मेघो॑ हवि॒र्धानं॑ वि॒द्युद॒ग्निर्व॒र्षँ ह॒विस्त॑नयि॒त्नुर्व॑षट्का॒रो यद॑व॒स्फूर्ज॑ति॒ सोऽनु॑वषट्का॒रो वा॒युरा॒त्माऽमा॑वा॒स्या॑ स्विष्ट॒कृत्। य ए॒वं वि॒द्वान्मे॒घे व॒र्षति॑ वि॒द्योत॑माने स्त॒नत्य॑व॒स्फूर्ज॑ति पव॑माने वा॒याव॑मावा॒स्यायाँ स्वाध्या॒यमधी॑ते॒ तप॑ ए॒व तत्त॑प्यते॒ तपो॑ हि स्वाध्या॒य इति।
तप व घर्म –
याभिः॑ शुच॒न्तिं ध॑न॒सां सु॑षं॒सदं॑ त॒प्तं घ॒र्ममो॒म्याव॑न्त॒मत्र॑ये। याभिः॒ पृश्नि॑गुं पुरु॒कुत्स॒माव॑तं ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम्।। - ऋ. १.११२.७
यु॒वमत्र॒येऽव॑नीताय त॒प्तमूर्ज॑मो॒मान॑मश्विनावधत्तम्। यु॒वं कण्वा॒यापि॑रिप्ताय॒ चक्षुः॒ प्रत्य॑धत्तं सुष्टु॒तिं जु॑जुषा॒णा।। - ऋ. १.११८.७
चतुः॑सहस्रं॒ गव्य॑स्य प॒श्वः प्रत्य॑ग्रभीष्म रु॒शमे॑ष्वग्ने। घ॒र्मश्चि॑त् त॒प्तः प्र॒वृजे॒ य आसी॑दय॒स्मय॒स्तम्वादा॑म॒ विप्राः॑।। - ऋ. ५.३०.१५
*दे॒वहि॑तिं जुगुपुर्द्वाद॒शस्य॑ ऋ॒तुं नरो॒ न प्र मि॑नन्त्ये॒ते। सं॒व॒त्स॒रे प्रा॒वृष्याग॑तायां त॒प्ता घ॒र्मा अ॑श्नुवते विस॒र्गम्।।(दे. मण्डूकाः) - ऋ. ७.१०३.९
यह समझना होगा कि घर्म किसे कहते हैं। घर्म को लौकिक भाषा में गर्म कहा जा सकता है। एक संदर्भ में कहा गया है कि शिश्न ही घर्म है। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे व्यक्तित्व में जहां भी कोई गर्मी उत्पन्न हो – चाहे काम से, क्रोध से आदि, वह सब घर्म का रूप है। इस घर्म का शोधन करके, तप करके इसे सूर्य का रूप देना है, आकाश में स्थापित करना है।
तप व वृष –
पुराणों में तो शिव के वृष को तप का रूप कह दिया गया है। वैदिक साहित्य में तो केवल निम्नलिखित ऋचा में ही वृष का तप के साथ उल्लेख आया है-
यो नः॒ सनु॑त्यो अभि॒दास॑दग्ने॒ यो अन्त॑रो मित्रमहो वनु॒ष्यात्। तम॒जरे॑भि॒र्वृष॑भि॒स्तव॒ स्वैस्तपा॑ तपिष्ठ॒ तप॑सा॒ तप॑स्वान्।। - ऋ. ६.५.४
प्रतीत होता है कि इस ऋचा में अग्नि के वृषों को स्वः(बहुवचन) के समकक्ष रखा गया है।
तप के विभिन्न स्तर --
अथर्ववेद १९.४३ सूक्त निम्नलिखित है –
यत्र॑ ब्रह्म॒विदो यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। अ॒ग्निर्मा॒ तत्र॑ नयत्व॒ग्निर्मे॒धा द॑धातु मे। अ॒ग्नये॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । वा॒युर्मा॒ तत्र॑ नयतु वा॒युः प्रा॒णान् द॑धातु मे। वा॒यवे॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । सूर्यो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ चक्षुः॒ सूर्यो॑ दधातु मे। सूर्या॑य॒ स्वाहा॑। यत्र॑ ० ० । च॒न्द्रो मा॒ तत्र॑ नयतु॒ मन॑श्च॒न्द्रो द॑धातु मे। च॒न्द्राय॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । सोमो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ पयः॒ सोमो॑ दधातु मे। सोमा॑य॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । इन्द्रो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ बल॒मिन्द्रो॑ दधातु मे। इन्द्रा॑य॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ०। आपो॑ मा॒ तत्र॑ नयन्त्व॒मृतं॒ मोप॑ तिष्ठतु। अ॒द्भ्यः स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । ब्र॒ह्मा मा॒ तत्र॑ नयतु ब्र॒ह्मा ब्रह्म॑ दधातु मे। ब्र॒ह्मणे॒ स्वाहा॑।।– अ. १९.४३.१-८
इस सूक्त में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, सोम, इन्द्र, आपः और ब्रह्मा के स्तर पर तप और दीक्षा का उल्लेख है। प्रत्येक स्तर पर क्या प्राप्त होना है, इसका भी उल्लेख है। अग्नि के स्तर पर मेधा की प्राप्ति होनी है, वायु के स्तर पर प्राणों की, सूर्य के स्तर पर चक्षु की, चन्द्रमा के स्तर पर मन की, सोम के स्तर पर पयः की, इन्द्र के स्तर पर बल की, आपः के स्तर पर अमृत की और ब्रह्मा के स्तर पर ब्रह्म की। मेधा, प्राण आदि शब्दों को समझना अभी एक पहेली ही बनी हुई है। एक संभावना यह है कि मेधा, प्राण, चक्षु, मन, पयः, अमृत, बल, ब्रह्म प्रत्येक में अचेतन या अर्धचेतन भाग विद्यमान है जिसको तप द्वारा शुद्ध करना है। अग्नि के स्तर पर मेधा की प्राप्ति का उल्लेख अथर्ववेद ७.६३.१-२ में भी है। मेधा शब्द को पुराणों में मेधा के उल्लेखों से समझा जा सकता है। मेधा को मङ्गल – पत्नी, घण्टानाद व व्रणदाता – माता कहा गया है। व्रणदाता से संकेत मिलता है कि मेधा से रक्तपात जैसी स्थिति, युद्ध की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। वैदिक साहित्य में अश्वमेध, पुरुषमेध व पितृमेध प्रसिद्ध हैं। पितृमेध में मृतक शरीर को अग्नि में जलाया जाता है। अन्यत्र मेधा को श्रुत व स्मृति की माता कहा गया है। स्मृति से अर्थ जातिज्ञान हो सकता है। मेधा को समझने का एक प्रयास दुर्गा सप्तशती के आधार पर किया जा सकता है जहां सुरथ राजा और समाधि वैश्य अपना राज्य और धन खोकर अन्ततः मेधा/सुमेधा ऋषि के आश्रम में पहुंचते हैं और मेधा ऋषि उन्हें प्रथम, मध्यम और उत्तम चरित्रों के रूप में तीन आख्यान सुनाते हैं (समाधि वैश्य को इस प्रकार समझा जा सकता है कि आत्मा १६वीं कला है और १५ कलाएं उसका वित्त/धन हैं)। १६वीं कला को क्षय-वृद्धि से रहित कहा जाता है। प्रथम चरित्र में वर्णन आता है कि जब विष्णु एकार्णव में शेष पर सोए हुए थे तो उनकी नाभि से कमल प्रकट हुआ जिससे ब्रह्मा प्रकट हुए। इसी बीच विष्णु के कर्णमल से मधु व कैटभ की उत्पत्ति हुई जिनके हनन के लिए ब्रह्मा की स्तुति पर विष्णु के शीर्ष, मुख, नासिका, हृदय और वक्ष से योगमाया बाहर निकल कर प्रकट हो गई और विष्णु जाग गए। विष्णु ने अन्ततः मधु असुर का सिर चक्र से काट दिया। मधु असुर क्या हो सकता है, इसके बारे में बृहदारण्यक उपनिषद में दी गई मधु विद्या के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है। कहा गया है कि यह पृथिवी सब भूतों के लिए मधु है और सब भूत इस पृथिवी के लिए मधु हैं। यहां पृथिवी का तात्पर्य हमारी चेतना लिया जा सकता है। जब सभी भूत हमारी चेतना को आनन्द देने वाले बन जाएं और हमारी चेतना सभी भूतों के लिए आनन्दप्रद हो, वह मधु विद्या है। जब ऐसी स्थिति न हो, अपितु कुछेक भूत ही, विषय ही हमारी चेतना के लिए आनन्दप्रद हों, वह मधु असुर की स्थिति होगी। विष्णु को यज्ञ कहा गया है। जैसे ही यह ज्ञान होता है कि किसी कार्य का शुद्ध स्वरूप, यज्ञ स्वरूप क्या है, यह विष्णु का जाग जाना है। मधु असुर के वध पर मधु असुर का मेद इस पृथिवी पर फैल जाता है जिससे इस पृथिवी का नाम मेदिनी हो जाता है। वास्तव में मेदिनी को मेधिनी कहा जा सकता है। यह प्रथम चरित्र ऋग्वेद से सम्बन्धित कहा गया है। इस प्रकार मेधा ऋषि द्वारा मधु-कैटभ असुरों के वध का वृत्तान्त सुनाना तर्कसंगत है। इसके पश्चात् मध्यम चरित्र में देवगण अपने – अपने तेज से एक देवी का निर्माण करते हैं जो महिषासुर का नाश करती है। यह यजुर्वेद से सम्बन्धित है। उत्तम चरित्र में देवी के पुराने कोश से एक नई देवी प्रकट होती है जो शुम्भ-निशुम्भ का वध करती है। यह सामवेद से सम्बन्धित है।
ताण्ड्य ब्राह्मण १३.६.१० में सुमित्र बनने के लिए सौमित्र साम का कथन है। ताण्ड्य ब्राह्मण १२.५.२३ में सर्वत्र अहिंसा की प्राप्ति के लिए अरिष्ट साम का कथन है। इन कथनों को भी मधु विद्या से सम्बद्ध किया जा सकता है।
वायु के स्तर पर तप से प्राणों की प्राप्ति कही गई है। वायु अन्तरिक्ष की पूर्ति करती है। अन्तरिक्ष में वयः रूपी प्राण उडते फिरते हैं। सारा अन्तरिक्ष प्राणों से भरा पडा है लेकिन हम उन प्राणों का स्पर्श नहीं कर पाते। यदि हम उनके स्पर्श का अनुभव होने लगे तो संभवतः स्थूल भोजन की आवश्यकता नहीं पडेगी।
सूर्य के स्तर पर चक्षु की प्राप्ति कही गई है। अन्यत्र सूर्य की स्थिति गर्भ जैसी कही गई है। गर्भ माता के शरीर से जो कुछ चाहे ग्रहण कर सकता है, लेकिन देता कुछ नहीं। सूर्य का चक्षु ऐसा है जिसके द्वारा देखने के लिए बाहर के प्रकाश की आवश्यकता नहीं पडती, स्वयं वह चक्षु ही प्रकाश भी देता है। चक्षु के संदर्भ में दूसरी संभावना को निम्नलिखित दोहे के आधार पर व्यक्त किया जा सकता है – चरणदास गुरु किरपा कीन्ही उलट दीन्हि मोरि नैन पुतरिया।
शतपथ ब्राह्मण १४.८.११.१/बृहदारण्यक उपनिषद ५.११.१ में मृत्यु-पश्चात् प्रेत संस्कार के विषय में कहा गया है –
एतद्वै परमं तपः। यद् व्याहितस्तप्यते। परमं हैव लोकं जयति। य एवं वेद। एतद्वै परमं तपः। यं प्रेतमरण्यं हरन्ति। परमं हैव लोकं जयति। य एवं वेद। एतद्वै परमं तपः। यं प्रेतमग्नावभ्यादधति। परमं हैव लोकं जयति। य एवं वेद। - श. १४.८.११.१
इस कथन के भाष्य में कहा गया है कि मृत्यु काल में ज्वर से ग्रस्त होना पहला परम तप है, फिर मृतक को जो अरण्य में ले जाते हैं वह दूसरा परम तप है और फिर मृतक का दाह संस्कार करते हैं, वह तीसरा परम तप है। इस कथन में व्याहित का भाष्य व्याधित, ज्वर आदि व्याधि से ग्रस्त किया गया है। ज्वर के पश्चात् ही मृत्यु होती है। लेकिन यहां व्याहित का अर्थ वि-आहित भी लिया जा सकता है। आहिताग्नि उस पुरुष को कहते हैं जो जीवनपर्यन्त अग्निहोत्र आदि कृत्यों के हेतु अग्नि को धारण करता है। उस व्यक्ति के मृत्यु पर्यन्त तथा मृत्यु पश्चात् भी सभी कर्म आहिताग्नि से ही सम्पन्न होते हैं। महाभारत आश्रमवासिक पर्व ३७ में युधिष्ठिर शोक करते हैं कि धृतराष्ट्र आदि अरण्य में वृथा अग्नि में जल कर मर गए। लेकिन नारद उन्हें संतोष दिलाते हैं कि वे वृथाग्नि में नहीं जले, अपितु तीन भागों में विभाजित(आहवनीय, अन्वाहार्यपचन व गार्हपत्य) यज्ञाग्नि में जले हैं। वृथाग्नि उस अग्नि को कहते हैं जिसे अर्जुन ने खाण्डव वन में तृप्त किया था। अथर्ववेद शौनक संहिता १८.४.९ में कहा गया है –
पूर्वो॑ अ॒ग्निष्ट्वा॑ तपतु॒ शं पु॒रस्ता॒च्छं प॒श्चात् त॑पतु॒ गार्ह॑पत्यः। द॒क्षि॒णा॒ग्निष्टे॑ तपतु॒ शर्म॒ वर्मो॑त्तर॒तो म॑ध्य॒तो अ॒न्तरि॑क्षाद् दि॒शोदि॑शो अग्ने॒ परि॑ पाहि घो॒रात्।।
पूर्व आदि दिशाओं का क्या तात्पर्य है, यह बहुत पहले ही स्वर्गीय डा. फतहसिंह द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है। पूर्व दिशा ज्ञान से, दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्ति से, पश्चिम दिशा सत्यानृत विवेक व पापों के जलाने से, उत्तर दिशा आनन्द से सम्बन्धित हैं। अन्त्येष्टि कर्म में देह के चारों ओर प्रदक्षिणा करके अग्नि का दाह कर दिया जाता है। फिर जिस दिशा की अग्नि सबसे पहले प्रज्वलित हो जाए, उसी के अनुसार भविष्यवाणी की जाती है कि प्रेत इस लोक को गया है(अन्त्येष्टि दीपिका)।
वृथाग्नि या दावाग्नि या अरण्य की अग्नि किसे कहते हैं, इसका उत्तर लक्ष्मीनारायण संहिता १.३८०.३९ के आधार पर दिया जा सकता है। हमारे अन्दर जो भी काम, क्रोध आदि के आवेग हैं, वह वृथाग्नि हैं। इन आवेगों की अग्नि को तप द्वारा व्यवस्थित बनाना है जिससे यह अग्नि लक्ष्मीनारायण संहिता की भाषा में कृष्ण मृग बन जाए। ब्रह्माण्ड पुराण में एक कथा आती है कि मध्यपुष्कर में तपोरत परशुराम के समक्ष एक मृग-मृगी प्रकट हुए जिन्होंने कहा कि यदि परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में जाकर अगस्त्य से कृष्णप्रेमामृत स्तोत्र की दीक्षा लेले तो उसे सफलता मिल सकती है। यह संकेत देता है कि वृथा अग्नि को व्यवस्थित बनाना और उससे भविष्य के लिए दिशानिर्देश प्राप्त करना तप का एक लक्ष्य है।
अथर्वेवेद ८.३.१९ तथा १८.४.११ में भी अग्नि द्वारा विभिन्न दिशाओं में तप द्वारा शम् करने के उल्लेख आए हैं जिनमें अधर/अधोदिशा भी है। लेकिन ऊर्ध्व-अधोदिशा में तपन का कार्य मुख्य रूप से आदित्य का कहा गया है-
स॒त्येनो॒र्ध्वस्त॑पति॒ ब्रह्म॑णा॒र्वाङ् वि प॑श्यति। प्रा॒णेन॑ ति॒र्यङ् प्राण॑ति॒ यस्मि॑न् ज्ये॒ष्ठमधि॑ श्रि॒तम्।। - अ. १०.८.१९
अथर्ववेद १३.३.१६ में भी सूर्य द्वारा ऊर्ध्व दिशा में द्युलोक को तपाने का उल्लेख है –
शु॒क्रं व॑हन्ति॒ हर॑यो रघु॒ष्यदो॑ दे॒वं दि॒वि वर्च॑सा॒ भ्राज॑मानम्। यस्यो॒र्ध्वा दिवं॑ त॒न्व॑१॒स्तप॑न्त्य॒र्वाङ् सु॒वर्णैः॑ पट॒रैर्वि भा॑ति॒ तस्य॑ दे॒वस्य॑। - - -
अथर्ववेद ६.९१.२ में सूर्य द्वारा अधोदिशा में तापन का उल्लेख है-
न्य॑१॒ग् वातो॑ वाति॒ न्यक् तपति॒ सूर्यः॑। नी॒चीन॑म॒घ्न्या दु॑हे॒ न्यग् भवतु ते॒ रपः॑।।
तप अथवा तापन का कार्य केवल अग्नि और सूर्य तक सीमित नहीं है। अथर्ववेद २.१९ से लेकर २.२३ तक के सूक्त क्रमशः अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र और आपः के तप से सम्बन्धित हैं –
अग्ने॒ यत् ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
अग्ने॒ यत् ते॒ हर॒स्तेन॒ तं प्रति॑ हर॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
अग्ने॒ यत् ते॒ऽर्चिस्तेन॒ तं प्रत्य॑र्च॒ यो॒३॒स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
अग्ने॒ यत् ते शो॒चिस्तेन॒ तं प्रति॑ शोच॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
अग्ने॒ यत् ते॒ तेज॒स्तेन॒ तम॑ते॒जसं॑ कृणु॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।।
वायो॒ यत् ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति तप॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
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सूर्य॒ यत् ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
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चन्द्र॒ यत् ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
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आपो॒ यद् व॒स्तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तपत॒ यो॒३॒॑स्मान् द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः।
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जैमिनीय ब्राह्मण में गवामयन याग के संदर्भ में कहा गया है कि जब सूर्य का तेज इतना प्रखर हो गया कि उसको सहना कठिन हो गया तो देवों ने सूर्य के ऊपर चन्द्रमा को स्थापित किया और सूर्य के नीचे वायु प्रवाहित की। यह कथन अथर्ववेद के उपरोक्त सूक्तों को समझने में उपयोगी हो सकता है।
अग्नि व सूर्य द्वारा तापन – यों तो तप में बहुत से देवों का योगदान हो सकता है, लेकिन लगता है कि मुख्य रूप से सूर्य और अग्नि के योगदान का ही वर्णन आता है। यह कहा जा सकता है कि अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास आदि हविर्यज्ञों द्वारा अग्नि के तापन में दक्षता लाई जाती है। उसके पश्चात् हविरहित सोमयागों द्वारा सूर्य के तापन में दक्षता उत्पन्न की जाती है। एक यजु में कहा गया है – भृगूणामङ्गिरसां तपसा तप्यध्वम्। - वाजसनेयि संहिता १.१८
भृगु-अंगिरसों का तप अग्नि का तप हो सकता है- धीमी गति से प्रगति करने वाला। ब्रह्म पुराण आदि में एक कथा आती है कि अंगिरस अपना याग श्वः सुत्या द्वारा करते हैं जबकि सूर्य अद्यसुत्या द्वारा। याग के अन्त में सूर्य ने अंगिरसों को अश्व दिया लेकिन अंगिरस उस चंचल अश्व को संभाल नहीं पाए। तब उन्होंने अश्व को वापस देकर पृथिवी रूपा गौ प्राप्त की। स्कन्द पुराण ५.३.१८१ में शिव – पार्वती द्वारा तपोरत भृगु की परीक्षा लेने की कथा है। पार्वती का शिव से कहना था कि भृगु इतना कठोर तप कर रहे हैं लेकिन आप फल नहीं देते। तब शिव ने ब्रह्मा को भृगु की परीक्षा लेने के लिए कहा। ब्रह्मा वृषभ रूप धारण करके भृगु के समक्ष गए और अपने सींगों व खुरों से भृगु को ताडित किया। तब भृगु क्रोधित हो उठे। शिव का वृषभ तप का रूप है, लेकिन असली परीक्षा तो तब है जब तप क्रिया रूप में आ जाए। ब्रह्मा का वृषभ बनना क्रिया रूप की ओर संकेत करता है। चंचल अश्व को वश में करने का कार्य सूर्य के तप द्वारा किया जा सकता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि अग्नि के स्तर पर तप से प्रेति, आकाश की ओर अग्रसर होने की सामर्थ्य आती है, जबकि सूर्य के स्तर पर तप से इस ब्रह्माण्ड की शक्तियों को आकर्षित करने की सामर्थ्य उत्पन्न होती है(शतपथ १४.१.४.२)। कहा गया है कि यह सूर्य देवों आदि का गर्भ बन जाता है। गर्भ की यह विशेषता होती है कि वह सारे शरीर की ऊर्जा का पान करने में समर्थ होता है। अथर्ववेद ३.१०.१२ तथा ११.७.२ में भी तप के संदर्भ में गर्भ बनने के उल्लेख आते हैं।
दीक्षा व तप –
दी॒क्षाऽसि॒ तप॑सो॒ योनिः॑। तपो॑ऽसि॒ ब्रह्म॑णो॒ योनिः॑। ब्रह्मा॑सि क्ष॒त्त्रस्य॒ योनिः॑। क्ष॒त्त्रम॑स्यृ॒तस्य॒ योनिः॑। ऋ॒तम॑सि॒ भूरार॑भे श्र॒द्धां मन॑सा। दी॒क्षां तप॑सा। विश्व॑स्य॒ भुव॑न॒स्याधि॑पत्नीम्। सर्वे॒ कामा॒ यज॑मानस्य सन्तु। - तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.१
पृ॒थि॒वी दी॒क्षा। तया॒ऽग्निर्दी॒क्षया॑ दीक्षि॒तः। - - - अ॒न्तरि॑क्षं दी॒क्षा। तया॑ वा॒युर्दी॒क्षया॑ दीक्षि॒तः। - - - द्यौर्दी॒क्षा। तया॑ऽऽदि॒त्यो दी॒क्षया॑ दीक्षि॒तः। - - - दिशो॑ दी॒क्षा। तया॑ च॒न्द्रमा॑ दी॒क्षया॑ दीक्षि॒तः। - - आपो॑ दी॒क्षा। तया॒ वरु॑णो॒ राजा॑ दी॒क्षया॑ दीक्षि॒तः। - - -ओष॑धयो दी॒क्षा। तया॒ सोमो॒ राजा॑ दी॒क्षया॑ दीक्षि॒तः। - - - वाग्दी॒क्षा। तया॑ प्रा॒णो दी॒क्षया॑ दीक्षि॒तः। - तै.ब्रा. ३.७.७.४
प्र॒जाप॑तिरकामयताश्वमे॒धेन॑ यजे॒येति॑। स तपोऽतप्यत। तस्य॑ तेपा॒नस्य॑। स॒प्ताऽऽत्मनो॑ दे॒वता॒ उद॑क्रामन्। सा दी॒क्षाऽभ॑वत्। स ए॒तानि॑ वैश्वदे॒वान्य॑पश्यत्। तान्य॑जुहोत्। तैर्वै स दी॒क्षामवा॑रुन्ध।- - - - स॒प्त संप॑द्यन्ते। स॒प्त वै शी॑र्ष॒ण्याः॑ प्रा॒णाः। प्रा॒णा दी॒क्षा। - तै.ब्रा. ३.८.१०.१
तैत्तिरीय आरण्यक १०.६२.२ का कथन है कि अनशन से बडा कोई तप नहीं है। इस कथन को इस प्रकार समझने का प्रयत्न किया जा सकता है कि दीक्षा में दीक्षित आचार्य का गर्भ बन जाता है और गर्भ सारे शरीर से पोषण पाता है। उसे अशन की आवश्यकता नहीं है। तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.१०.१ का कथन है कि सात शीर्ष प्राणों का विकसित हो जाना ही दीक्षा है। वही निचले प्राणों को अन्न प्रदान करेंगे।
प्रथम लेखन- १२-९-२०११ ई.(भाद्रपद पूर्णिमा, विक्रम संवत् २०६८)
General meaning of Sanskrit word Tapa is taken as heating. And vedic texts have used the same meaning for higher purposes. Wherever there is unripe stage, whether it is of a fruit or of consciousness or mind, it has to be ripened by tapah. Tapa can not be explained properly until one takes into consideration the modern concept of entropy, i.e., to decrease the disorder in a system for getting useful work out of it. Tapah has been classified into several stages, viz., at the stages of fire, air, sun, moon etc. Every stage imparts some specific qualities. While searching a useful meaning of tapah, it can be said that whatever is producing heat inside us, like hate, anger, sex etc., all that has to be ordered by tapah. The purest form of tapah is when it takes us to a state which is free from rigidity, impurity of gross matter and it is called swah. One has to start from tapah and be able to impart / donate swah
संदर्भ
*नम॑स्ते प्रवतो नपा॒द्यत॒स्तपः॑ स॒मूह॑सि। मृ॒डया॑ नस्त॒नूभ्यो॒ मय॑स्तो॒केभ्य॑स्कृधि।।
प्रव॑तो नपा॒न्नम॑ ए॒वास्तु॒ तुभ्यं॒ नम॑स्ते हे॒तये॒ तपु॑षे च कृण्मः। वि॒द्य ते॒ धाम॑ पर॒मं गुहा॒ यत् स॑मु॒द्रे अ॒न्तर्निहि॑तासि॒ नाभिः॑।। - (दे. विद्युत) – अथर्ववेद १.१३.२-३
*उ॒तान्तरि॑क्षमु॒रु वात॑गोपं॒ त इ॒ह त॑प्यन्तां॒ मयि॑ त॒प्यमा॑ने – अ. २.१२.१
*तपूं॑षि॒ तस्मै॑ वृजि॒नानि॑ सन्तु ब्रह्म॒द्विषं॒ द्यौर॑भि॒संत॑पाति – अ. २.१२.६
*ए॒का॒ष्टका तप॑सा त॒प्यमा॑ना ज॒जान॒ गर्भं॑ महि॒मान॒मिन्द्र॑म्। - अ. ३.१०.१२
*इन्द्रो॑ जा॒तो म॑नु॒ष्येष्व॒न्तर्घ॒र्मस्त॒प्तश्च॑रति॒ शोशु॑चानः। - अ. ४.११.३
*तेन॑ गेष्म सुकृ॒तस्य॑ लो॒कं घ॒र्मस्य॑ व्र॒तेन॒ तप॑सा यश॒स्यवः॑ – अ. ४.११.६
*म॒न्युं विश॑ ईडते॒ मानु॑षी॒र्याः पा॒हि॑ नो॑ मन्यो॒ तप॑सा स॒जोषाः॑ – अ. ४.३२.२
*अ॒भीहि मन्यो त॒वस॒स्तवी॑या॒न् तप॑सा यु॒जा वि ज॑हि॒ शत्रू॑न्। - अ. ४.३२.३
*छन्दां॑सि प॒क्षौ मुख॑मस्य स॒त्यं वि॑ष्टा॒री जा॒तस्तप॒सोऽधि॑ य॒ज्ञः – अ. ४.३४.१
*यमो॑द॒नं प्र॑थम॒जा ऋ॒तस्य॑ प्र॒जाप॑ति॒स्तप॑सा ब्रह्म॒णेऽप॑चत्। - अ. ४.३५.१
*येनात॑रन् भूत॒कृतोऽति॑ मृ॒त्युं यम॒न्ववि॑न्द॒न् तप॑सा॒ श्रमे॑ण। - अ. ४.३५.२
*म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजा॒ तुर॑श्चि॒द् विश्व॑मर्णव॒त् तप॑स्वान् – अ. ५.२.८, २०.१०७.११
*चक्षु॑षो हेते॒ मन॑सो हेते॒ ब्रह्म॑णो हेते॒ तप॑सश्च हेते। - अ. ५.६.९
*वी॒डुह॑रा॒स्तप॑ उ॒ग्रं म॑यो॒भूरापो॑ दे॒वीः प्र॑थम॒जा ऋ॒तस्य॑(दे. ब्रह्मजाया) – अ. ५.१७.१
*दे॒वा वा ए॒तस्या॑मवदन्त॒ पूर्वे॑ सप्तऋ॒षय॒स्तप॑सा॒ ये नि॑षे॒दुः। - अ. ५.१७.६
*जि॒ह्वा ज्या भव॑ति॒ कुल्म॑लं॒ वाङ्ना॑डी॒का दन्ता॒स्तप॑सा॒भिदि॑ग्धाः। - अ. ५.१८.८
*अ॒नु॒हाय॒ तप॑सा म॒न्युना॑ चो॒त दू॒रादव॑ भिन्दन्त्येनम् – अ. ५.१८.९
*विष्णु॑र्युनक्तु बहु॒धा तपां॑स्य॒स्मिन् य॒ज्ञे सु॒युजः॒ स्वाहा॑ – अ. ५.२६.७
*नव॑ प्रा॒णान् न॒वभिः॒ सं मि॑मीते दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय। हरि॑ते॒ त्रीणि॑ रज॒ते त्रीण्यय॑सि॒ त्रीणि॒ तप॒सा॑वि॑ष्ठितानि।। - अ. ५.२८.१
*अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छतु॒ कं चि॑दव्र॒तस्तपु॑र्वधाय॒ नमो॑ अस्तु त॒क्मने॑ – अ. ६.२०.१
*मह्यं दे॒वा उ॒त विश्वे॑ तपो॒जा मह्यं॑ दे॒वः स॑वि॒ता व्यचो॑ धात् – अ. ६.६१.१
*इ॒दमा॒दान॑मकरं॒ तप॒सेन्द्रे॑ण॒ संशि॑तम्। - अ. ६.१०४.२
*य॒ज्ञं यन्तं॒ मन॑सा बृ॒हन्त॑म॒न्वारो॑हामि॒ तप॑सा॒ सयो॑निः। - अ. ६.१२२.४
*तम॒हं ब्रह्म॑णा तप॑सा॒ श्रमे॑णा॒नयै॑नं॒ मेख॑लया सिनामि।। श्र॒द्धाया॑ दुहि॒ता तप॒सोऽधि॑ जा॒ता स्वस॒ ऋषी॑णां भूत॒कृतां॑ ब॒भूव॑। सा नो॑ मेखले म॒तिमा धे॑हि मे॒धामथो॑ नो धेहि॒ तप॑ इन्द्रि॒यं च॑।। - अ.६.१३३.३-४
*यद॑ग्ने॒ तप॑सा॒ तप॑ उपत॒प्याम॑हे॒ तपः॑। प्रि॒याः श्रु॒तस्य॑ भूया॒स्मायु॑ष्मन्तः सुमे॒धसः॑।। अग्ने॒ तप॑स्तप्यामह॒ उप॑ तप्यामहे॒ तपः॑। श्रु॒तानि॑ शृ॒ण्वन्तो॑ व॒यमायु॑ष्न्तः सुमे॒धसः॑।। - अ. ७.६३.१-२
*समि॑द्धो अ॒ग्निर्वृ॑षणा र॒थी दि॒वस्त॒प्तो घ॒र्मो दु॑ह्यते वामि॒षे मधु॑। - अ. ७.७७.१
*समि॑द्धो अ॒ग्निर॑श्विना त॒प्तो वां॑ घ॒र्म आ ग॑तम्। - अ. ७.७७.२
*माध्वी॑ धर्तारा विदथस्य सत्पती त॒प्तं घ॒र्मं पि॑बतं रोच॒ने दि॒वः – अ. ७.७७.४
*त॒प्तो वां॑ घ॒र्मो न॑क्षतु॒ स्वहो॑ता॒ प्र वा॑मध्व॒र्युश्च॑रतु॒ पय॑स्वान्। - अ. ७.७७.५
*द्रु॒हः पाशा॒न् प्रति॑ मुञ्चतां॒ सस्तपि॑ष्ठेन॒ तप॑सा हन्तना॒ तम् – अ. ७.८२.२
*परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धानान् परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि। - अ. ८.३.१३
*अग्ने॑ ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॒ तपु॑रग्राभिर॒र्चिभिः॑ – अ. ८.३.२३
*इन्द्रा॑सोमा॒ तप॑तं॒ रक्ष॑ उ॒ब्जतं॒ न्यर्पयतं वृषणा तमो॒वृधः॑। - अ. ८.४.१
*इन्द्रा॑सोमा॒ सम॒घशं॑सम॒भ्य१॑घं तपु॑र्ययस्तु च॒रुर॑ग्नि॒माँ इ॑व। - अ. ८.४.२
*इन्द्रा॑सोमा व॒र्तय॑तं दि॒वस्पर्य॑ग्नित॒प्तेभि॑र्यु॒वमश्म॑हन्मभिः। तपु॑र्वधेभिर॒जरे॑भिर॒त्त्रिणो॒ नि पर्शा॑ने विध्यतं॒ यन्तु॑ निस्व॒रम्।। - अ. ८.४.५
*ब्र॒ह्मैन॑द् विद्या॒त् तप॑सा विप॒श्चिद् यस्मि॒न्नेकं॑ यु॒ज्यते॒ यस्मि॒न्नेक॑म् – अ. ८.९.३
*तस्याः॒ सोमो॒ राजा॑ व॒त्स आसी॒च्छन्दः॒ पात्र॑म्। तां बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सोऽधो॒क् तां ब्रह्म॑ च॒ तप॑श्चाधोक्। - अ. ८.१३.१५-१६
*उत् क्रा॒मातः॒ परि॒ चेदत॑प्तस्त॒प्ताच्च॒रोरधि॒ नाकं॑ तृ॒तीयम्। - अ. ९.५.६
*परा॑ शृणीहि॒ तप॑सा यातु॒धाना॒न् परा॑ग्ने॒ रक्षो॒ हर॑सा शृणीहि। - अ. १०.५.४९
*कस्मि॒न्नङ्गे॒ तपो॑ अ॒स्याधि॑ तिष्ठति॒ कस्मि॒न्नङ्ग॑ ऋ॒तम॒स्याध्याहि॑तम्।(दे. स्कम्भः आत्मा वा)– अ. १०.७.१
*यत्र॒ तपः॑ परा॒क्रम्य॑ व्र॒तं धारय॒त्युत्त॑रम्। ऋ॒तं च॒ यत्र॑ श्र॒द्धा चापो॒ ब्रह्म॑ स॒माहि॑ताः स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः।। - अ. १०.७.११
*स्क॒म्भे लो॒काः स्क॒म्भे तपः॑ स्क॒म्भे तपः स्क॒म्भेऽध्यृ॒तमाहि॑तम्। - - - इन्द्रे॑ लो॒का इन्द्रे॒ तप॒ इन्द्रेऽध्यृ॒तमाहि॑तम्। - अ. १०.७.२९-३०
*यः श्रमा॒त् तप॑सो जा॒तो लो॒कान्तसर्वा॑न्त्समान॒शे। सोमं॒ यश्च॒क्रे केव॑लं॒ तस्मै॑ ज्ये॒ष्ठाय॒ ब्रह्म॑णे॒ नमः॑।। - अ. १०.७.३६
*म॒हद् य॒क्षं भुव॑नस्य॒ मध्ये॒ तप॑सि क्रा॒न्तं स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे। तस्मि॑न्छ्रयन्ते॒ य उ॒ के च॑ दे॒वा वृ॒क्षस्य॒ स्कन्धः॑ प॒रित॑ इव॒ शाखाः॑।। - अ.१०.७.३८
*ब्रा॒ह्म॒णेभ्यो॑ व॒शां द॒त्त्वा सर्वां॑ल्लो॒कान्तसम॑श्नुते। ऋ॒तं ह्यस्या॒मार्पि॑त॒मपि॒ ब्रह्माथो॒ तपः॑।। - अ. १०.१०.३३
*अग्ने॑ च॒रुर्य॒ज्ञिय॒स्त्वाध्य॑रुक्ष॒च्छुचि॒स्तपि॑ष्ठ॒स्तप॑सा तपैनम्। आ॒र्षे॒या दै॒वा अ॑भिसं॒गत्य॑ भा॒गमि॒मं तपि॑ष्ठा ऋ॒तुभि॑स्तपन्तु।। - ११.१.१६
*ऋषी॑नार्षे॒यांस्तप॒सोऽधि॑ जा॒तान् ब्र॑ह्मौद॒ने सु॒हवा॑ जोहवीमि – अ. ११.१.२६
*स दा॑धार पृथि॒वीं दिवं॑ च॒ स आचा॒र्यं१॑ तप॑सा पिपर्ति(दे.ब्रह्मचारी) – अ. ११.७.१
*ग॒न्ध॒र्वा ए॑न॒मन्वा॑य॒न्त्रय॑स्त्रिंशत्त्रिश॒ताः ष॑ट्सह॒स्राः सर्वा॒न्त्स दे॒वांस्तप॑सा पिपर्ति – अ. ११.७.२
*ब्र॒ह्म॒चा॒री स॒मिधा॒ मेख॑लया॒ श्रमे॑ण लो॒कांस्तप॑सा पिपर्ति – अ. ११.७.४
*पूर्वो॑ जा॒तो ब्रह्म॑णो ब्रह्मचा॒री घ॒र्मं वसा॑न॒स्तप॒सोद॑तिष्ठत्। - अ. ११.७.५
*ते र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तस्मि॑न् दे॒वाः संम॑नसो भवन्ति – अ. ११.७.८
*तौ र॑क्षति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री तत् केव॑लं कृणुते॒ ब्रह्म॑ वि॒द्वान् – अ. ११.७.१०
*तयोः॑ श्रयन्ते र॒श्मयोऽधि॑ दृ॒ढास्ताना ति॑ष्ठति॒ तप॑सा ब्रह्मचा॒री – अ. ११.७.११
*ब्र॒ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा॒ राजा॑ रा॒ष्ट्रं वि र॑क्षति। - अ. ११.७.१७
*ब्र॒ह्म॒चर्ये॑ण॒ तप॑सा दे॒वा मृ॒त्युमपा॑घ्नत। - अ. ११.७.१९
*तानि॒ कल्प॑द् ब्रह्मचा॒री स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे तपो॑ऽतिष्ठत् त॒प्यमा॑नः समु॒द्रे। - अ. ११.७.२६
*अ॒ग्नि॒हो॒त्रं च॑ श्र॒द्धा च॑ वषट्का॒रो व्र॒तं तपः॑। दक्षि॑णे॒ष्टं पू॒र्तं चोच्छि॒ष्टेऽधि॑ स॒माहि॑ताः।। - अ. ११.९.९
*ऋ॒तं स॒त्यं तपो॑ रा॒ष्ट्रं श्रमो॒ धर्म॑श्च॒ कर्म॑ च। भू॒तं भ॑वि॒ष्यदुच्छि॑ष्टे वी॒र्यं॒ ल॒क्ष्मीर्बलं॒ बले॑।। - अ. ११.९.१७
*तप॑श्चै॒वास्तां॒ कर्म॑ चान्तर्म॑ह॒त्यर्ण॒वे। त आ॑सं॒ जन्या॒स्ते व॒रा ब्रह्म॑ ज्येष्ठव॒रोऽभवत्।।(दे. अध्यात्मं, मन्युः) - अ. ११.१०.२
*तप॑श्चै॒वास्तां॒ कर्म॑ चा॒न्तर्म॑ह॒त्यर्ण॒वे। तपो॑ ह जज्ञे॒ कर्म॑ण॒स्तत् ते ज्ये॒ष्ठमुपा॑सत।। - अ. ११.१०.६
*स॒त्यं बृ॒हदृ॒तमु॒ग्रं दी॒क्षा तपो॒ ब्रह्म॑ य॒ज्ञः पृ॑थि॒वीं धा॑रयन्ति। - अ. १२.१.१
*स॒प्त स॒त्रेण॑ वे॒धसो॑ य॒ज्ञेन॒ तप॑सा स॒ह – अ. १२.१.३९
*यमो॑द॒नं पच॑तो दे॒वते॑ इ॒ह तं न॒स्तप॑ उ॒त स॒त्यं च॑ वेत्तु – अ. १२.३.१२
*उद्यो॑धन्त्य॒भि व॑ल्गन्ति त॒प्ताः फेन॑मस्यन्ति बहु॒लांश्च॑ बि॒न्दून्। योषे॑व दृ॒ष्ट्वा पति॒मृत्वि॑यायै॒तैस्त॑ण्डु॒लैर्भ॑वता॒ समा॑पः।। - अ. १२.३.२९
*स॒त्याय॑ च॒ तप॑से दे॒वता॑भ्यो नि॒धिं शे॑व॒धिं परि॑ दद्म ए॒तम्। मा नो॑ द्यू॒तेऽव॑ गा॒न्मा समि॑त्यां॒ मा स्मा॒न्यस्मा॒ उत् सृ॑जता पु॒रा मत्।। - अ. १२.३.४६
*श्रमे॑ण॒ तप॑सा सृ॒ष्टा ब्रह्म॑णा वि॒त्तर्ते श्रि॒ता। स॒त्येनावृ॑ता श्रि॒या प्रावृ॑ता॒ यश॑सा॒ परी॑वृता।। – अ. १२.५.१
*यास्ते॒ विश॒स्तप॑सः संबभू॒वुर्व॒त्सं गा॑य॒त्रीमनु॒ ता इ॒हागुः॑। - अ. १३.१.१०
*रोहि॑तो॒ दिव॒मारु॑ह॒त् तप॑सा तप॒स्वी। स योनि॒मैति॒ स उ॑ जायते॒ पुनः॒ स दे॒वाना॒मधि॑पतिर्बभूव।। - अ. १३.२.२५
*ब्रह्म॑ च॒ तप॑श्च की॒र्तिश्च॒ यश॒श्चाम्भ॑श्च॒ नभ॑श्च ब्राह्मणवर्च॒सं चान्नं॑ चा॒न्नाद्यं॑ च। य ए॒तं दे॒वमे॑क॒वृतं॒ वेद॑।। - अ. १३.६.१
*तदेक॑मभव॒त् तल्ल॒लाम॑मभव॒त् तन्म॒हद॑भव॒त् तज्ज्ये॒ष्ठम॑भव॒त् तद् ब्रह्मा॑भव॒त् तत् तपो॑ऽभव॒त् तत् स॒त्यम॑भव॒त् तेन॒ प्राजा॑यत।। - अ. १५.१.३
*उद॑गाद॒यमा॑दि॒त्यो विश्वे॑न॒ तप॑सा स॒ह। - अ. १७.१.२४
*अ॒जो भा॒गस्तप॑स॒स्तं त॑पस्व॒ तं ते॑ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते॑ अ॒र्चिः। - अ. १८.२.८
*ये चि॒त् पूर्व॑ ऋ॒तसा॑ता ऋ॒तजा॑ता ऋता॒वृधः॑। ऋषी॒न् तप॑स्वतो यम तपो॒जाँ अपि गच्छतात्।। - अ. १८.२.१५
*तप॑सा॒ ये अ॑नाधृ॒ष्यास्तप॑सा॒ ये स्वर्य॒युः। तपो॒ ये च॑क्रि॒रे मह॒स्तांश्चि॑दे॒वापि॑ गच्छतात्।।(दे. यमः) – अ. १८.२.१६
*स॒हस्र॑णीथाः क॒वयो॒ ये गो॑पा॒यन्ति॒ सूर्य॑म्। ऋषी॒न् तप॑स्वतो यम तपो॒जाँ अपि॑ गच्छतात्।। - अ. १८.२.१८
*शं त॑प॒ माति॑ तपो॒ अग्ने॒ मा त॒न्वं१॒॑ तपः॑। - अ.१८.२.३६
*द्वि॒ष॒तस्ता॒पय॑न् हृ॒दः शत्रू॑णां ता॒पय॒न् मनः॑। दु॒र्हार्दः॒ सर्वां॒स्त्वं द॑र्भ घ॒र्म इ॑वा॒भिन्त्सं॑तापय॑न्।। - १९.२८.२
*मा नो॑ मे॒धां मा नो॑ दी॒क्षां मा नो॑ हिंसिष्टं॒ यत् तपः॑। - अ. १९.४०.३
*भ॒द्रमि॒च्छन्त॒ ऋष॑यः स्व॒र्विद॒स्तपो॑ दी॒क्षामु॑प॒निषे॑दु॒रग्रे॑। - अ. १९.४१.१
*यत्र॑ ब्रह्म॒विदो यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। अ॒ग्निर्मा॒ तत्र॑ नयत्व॒ग्निर्मे॒धा द॑धातु मे। अ॒ग्नये॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । वा॒युर्मा॒ तत्र॑ नयतु वा॒युः प्रा॒णान् द॑धातु मे। वा॒यवे॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । सूर्यो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ चक्षुः॒ सूर्यो॑ दधातु मे। सूर्या॑य॒ स्वाहा॑। यत्र॑ ० ० । च॒न्द्रो मा॒ तत्र॑ नयतु॒ मन॑श्च॒न्द्रो द॑धातु मे। च॒न्द्राय॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । सोमो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ पयः॒ सोमो॑ दधातु मे। सोमा॑य॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । इन्द्रो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ बल॒मिन्द्रो॑ दधातु मे। इन्द्रा॑य॒ स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ०। आपो॑ मा॒ तत्र॑ नयन्त्व॒मृतं॒ मोप॑ तिष्ठतु। अ॒द्भ्यः स्वाहा॑।। यत्र॑ ० ० । ब्र॒ह्मा मा॒ तत्र॑ नयतु ब्र॒ह्मा ब्रह्म॑ दधातु मे। ब्र॒ह्मणे॒ स्वाहा॑।।– अ. १९.४३.१-८
*का॒ले तपः॑ का॒ले ज्येष्ठं॑ का॒ले ब्रह्म॑ स॒माहि॑तम्। - अ. १९.५३.८
*का॒लः प्र॒जा अ॑सृजत का॒लो अग्रे॑ प्र॒जाप॑तिम्। स्व॒यं॒भूः क॒श्यपः॑ का॒लात् तपः॑ का॒लाद॑जायत।। - अ. १९.५३.१०
*का॒लादापः॒ सम॑भवन् का॒लाद् ब्रह्म॒ तपो॒ दिशः॑। का॒लेनोदे॑ति॒ सूर्यः॑ का॒ले नि वि॑शते॒ पुनः॑।। - अ. १९.५४.१
*स्वर्मदसि पर॒मेण॑ ब॒न्धुना॑ त॒प्यमा॑नस्य॒ मन॒सोऽधि॑ जज्ञिषे – अ. १९.५६.५
*कृ॒तमि॒ष्टं ब्रह्म॑णो वी॒र्येण॒ तेन॑ मा देवा॒स्तप॑सावते॒ह – अ. १९.७२.१
*कपालोपधानम् :- अथाङ्गारैरभ्यूहति- भृगूणामङ्गिरसां तपसा तप्यध्वम् इति। एतद्वै तेजिष्ठं तेजो यद् भृग्वङ्गिरसाम्। सुतप्तान्यसन्निति- तस्मादेवमभ्यूहति। - श. १.२.१.१३
*शान्तिकर्म :– स यथा हैवाग्निः सामिधेनीभिः समिद्धस्तपति, एवं हैव ब्राह्मणः सामिधेनीर्विद्वाननुब्रुवंस्तपति। अनवधृष्यो हि भवति, अनवमृश्यः। सोऽन्वाह- प्रवः इति। प्राणो वै प्रवान्, प्राणमेवैतया समिन्धे। अग्न आयाहि वीतये इति। अपानो वा एतवान्, अपानमेवैतया समिन्धे। बृहच्छोचा यविष्ठ्य इति। उदानो वै बृहच्छोचाः, उदानमेवैतया समिन्धे। स नः पृथु श्रवाय्यम् इति। श्रोत्रं वै पृथु श्रवाय्यम्, श्रोत्रेण हीदमुरु पृथु श्रृणोति श्रोत्रमेवैतया समिन्धे। ईडेन्यो नमस्यः इति। वाग् वा ईडेन्या, वाग्घीदं सर्वमीट्टे। वाचेदं सर्वमीडितम्। वाचमेवैतया समिन्धे। अश्वो न देववाहनः इति। मनो वै देववाहनम्। मनो हीदं मनस्विनं भूयिष्ठं वनीवाह्यते मन एवैतया समिन्धे। अग्ने दीद्यतं बृहत् इति। चक्षुर्वै दीदयेव। चक्षुरेवैतया समिन्धे। अग्निं दूतं वृणीमहे इति। य एवायं मध्यमः प्राणः एतमेवैतया समिन्धे। ता हैषान्तस्था प्राणानाम्, अतो ह्यन्य ऊर्द्ध्वाः प्राणाः, अतोऽन्येऽवाञ्चः। अन्तस्था ह भवति। - - -शोचिष्केशस्तमीमहे इति। शिश्नं वै शोचिष्केशम्, शिश्नं हीदं शिश्निनं भूयिष्ठं शोचयति। - - - श. १.४.३.१
*हवनक्लृप्तिः :– असौ वा अनुवाक्या, इयं याज्या – ते उभे योषे। तयोर्मिथुनमस्ति वषट्कार एव। तद्वा एष एव वषट्कारः – य एष तपति। स उद्यन्नेवामूमधिद्रवति, अस्तं यन्निमामधिद्रवति। तदेतेन वृष्णेमां प्रजातिं प्रजायते- यैनयोरियं प्रजातिः। - श. १.७.२.११
*अग्निहोत्र ब्राह्मणम् :– प्रजापतिर्ह वा इदमग्र एक एवास। स ऐक्षत- कथं नु प्रजायेय इति । सोऽश्राम्यत्, स तपोऽतप्यत सोऽग्निमेव मुखाज्जनयाञ्चक्रे। तद् यदेनं मुखादजनयत-तस्मादन्नादोऽग्निः। - श. २.२.४.१
*तं स्वो महिमाऽभ्युवाद- जुहुधीति। स प्रजापतिः विदाञ्चकार – स्वो वै मा महिमाऽऽहेति। स स्वाहेत्येवाजुहोत्- तस्मादु स्वाहेत्येव हूयते। तत एष उदियाय- य एष तपति। ततोऽयं प्रबभूव- योऽयं पवते। तत एवाग्निः पराङ् पर्य्याववर्त।– श. २.२.४.६
*औद्ग्रभणहोमः। दीक्षाहुतिः :– दीक्षायै तपसेऽग्नये स्वाहा इति। अन्वेवैतदुच्यते, नेत्तु हूयते। - श. ३.१.४.८
*सोमक्रयण :– अथाजायां प्रतीचीनमुख्यां वाचयति – तपसस्तनूरसि इति। तपसो ह वाऽएषा प्रजापतेः सम्भूता-यदजा। - श. ३.३.३.८
*प्रवर्ग्यकर्मणि अवान्तरदीक्षा :- तपो वा अग्निः, तपो दीक्षा। तदवान्तरां दीक्षामुपायन् - - - -सोऽग्निनैव त्वचं विपल्यङ्गयते। तपो वा अग्निः, तपो दीक्षा। - शतपथ ३.४.३.२
*अनु मे दीक्षां दीक्षापतिर्मन्यताम्। अनुतपस्तपस्पतिः इति। तदवान्तरां दीक्षामुपैति।– श. ३.४.३.९
*अथैनमतो मदन्तीभिरुपचरन्ति। तपो वा अग्निः, तपो मदन्त्यः। - श. ३.४.३.१०
*परउर्वीर्वा अन्या उपसदः। परोऽह्वीरन्याः। - - - तपसा वै लोकं जयन्ति, तद् अस्यैतत् परः – पर एव वरीयस्तपो भवति। परःपरः श्रेयांसँल्लोकं जयति। - श. ३.४.४.२७
*सौमिकवेदिकरणम् :– स वेद्यन्तात् उदीचीं शम्यां निदधाति। स परिलिखति। तप्तायनी मेऽसि इति। इमामेवैतदाह। अस्यां हि तप्त एति। - श. ३.५.१.२७
*उत्तरवेद्यां अग्निप्रणयनम् :– अथ याः प्रोक्षण्यः परिशिष्यन्ते – तद् ये एते पूर्वे स्रक्ती – तयोर्या दक्षिणा – तान्यन्तेन बहिर्वेदि निनयति। इदमहं तप्तं वार्बहिर्द्धा यज्ञान्निःसृजामि इति। सा यदेवादः सिंही भूत्वा शान्तेवाचरत्- तामेवास्या एतच्छुचं बहिर्द्धा यज्ञान्निःसृजि। यदि नाभिचरेद्। यद्युऽअभिचरेदादिशेदिदमहं तप्तं वारमुमभि निःसृजामीति। तमेतया शुचा विध्यति। - श. ३.५.२.८
*ऋतुग्रहाः :– उपयामगृहीतोऽसि तपसे त्वा । इत्येवाध्वर्युर्गृह्णाति। उपयामगृहीतोऽसि तपस्याय त्वा इति प्रतिप्रस्थाता। एतावेव शैशिरौ। स यदेतयोर्बलिष्ठं श्यायति – तेनो हैतौ तपश्च तपस्यश्च। - श. ४.३.१.१९
*अभिषेकः :– स उत्पुनाति – सवितुर्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः इति। सोऽसावेव बन्धुः। अनिभृष्टमसि वाचो बन्धुस्तपोजाः इति। अनाधृष्टा स्थ रक्षोभिरित्येवैतदाह – यदाह अनिभृष्टमसीति। - - -तपोजा इति। अग्नेर्वै धूमो जायते, धूमादभ्रम्, अभ्राद्वृष्टिः। अग्नेर्वाऽएता जायन्ते। तस्मादाह- तपोजा इति। - श. ५.३.५.१७
*अग्निचित्या ब्राह्मणम् :- सोऽयं पुरुषः प्रजापतिरकामयत- भूयान्त्स्याम्, प्रजायेयेति। सोऽश्राम्यत्। स तपोऽतप्यत। स श्रान्तस्तेपानो ब्रह्मैव प्रथममसृजत- त्रयीमेव विद्याम्। सैवास्मै प्रतिष्ठाऽभवत्। - श. ६.१.१.८
*सोऽकामयत- भूय एव स्यात्, प्रजायेतेति। सोऽश्राम्यत्। स तपोऽतप्यत। स श्रान्तस्तेपानः फेनमसृजत। सोऽवेद्- अन्यद्वाऽएतद्रूपम्। भूयो वै भवति। श्राम्याण्येवेति। स श्रान्तस्तेपानो मृदम्, शुष्कापमूषसिकतम्, शर्कराम्, अश्मानम्, अयः, हिरण्यम्, ओषधिवनस्पति असृजत। तेनेमां पृथिवीं प्राच्छादयत्। - श. ६.१.१.१३
*अबादीन्यष्टौ रूपाणि चयनोपयुक्तानि :– प्रजापतिर्वाऽइदमग्रऽआसीत्- एक एव सोऽकामयत-स्यां प्रजायेयेति। सोऽश्राम्यत्। स तपोऽतप्यत। तस्माच्छ्रान्तात्तेपानादापोऽसृज्यन्त। तस्मात्पुरुषात्तप्तादापो जायन्ते। आपोऽब्रुवन्- क्व वयं भवामेति। तप्यध्वमित्यब्रवीत्। ता अतप्यन्त। ताः फेनमसृजन्त। तस्मादपां तप्तानां फेनो जायते। फेनोऽब्रवीत्- क्वाहं भवानीति। तप्यस्वेत्यब्रवीत्। सोऽतप्यत। स मृदमसृजत। एतद्वै फेनस्तप्यते- यदप्स्वावेष्टमानः प्लवते। स यदोपहन्यते- मृदेव भवति। मृदब्रवीत्- क्वाहं भवानीति। तप्यस्वेत्यब्रवीत्। साऽतप्यत। सा सिकता असृजत। एतद्वै मृत्तप्यते- यदेनां विकृषन्ति। तस्माद्यद्यपि सुमार्त्स्नं विकृषन्ति – सैकतमिवैव भवति। एतावन्नु तद् – यत् क्वाहं भवानि, क्वाहं भवानीति। सिकताभ्यः शर्करामसृजत। तस्मात् शर्करैवान्ततो भवति। शर्कराया अश्मानम्। तस्माच्छर्कराऽश्मैवान्ततो भवति। अश्मनोऽयः। तस्मादश्मनोऽयो धमन्ति। अयसो हिरण्यम्। - श. ६.१.३.१
*तं प्रजापतिरब्रवीत्- कुमार! किं रोदिषि। यच्छ्रमात्तपसोऽधिजातोऽसीति। सोऽब्रवीत् – अनपहतपाप्मा वाऽअस्मि- अहितनामा। नाम मे धेहीति। - श. ६.१.३.९
*गार्हपत्याग्निचयनम् :- या रोचने परस्तात्सूर्यस्य याश्चावस्तादुपतिष्ठन्तऽआपः इति। रोचनो ह नामैष लोकः - यत्रैष एतत्तपति। - श. ७.१.१.२४
*रुक्मेष्टकोपधानम् :- तं रुक्मऽउपदधाति। असौ वाऽआदित्य एष रुक्मः। अथ य एष एतस्मिन्मण्डले पुरुषः – स एषः। तमेवैतदुपदधाति। उत्तानमुपदधाति। एतद्वै देवा अब्रुवन्- यदि वाऽइमावर्वाञ्चाऽउपधास्यामः- सर्वमेवेदं प्रधक्ष्यतः। यद्यु पराञ्चौ। पराञ्चावेव तप्स्यतः। यद्यु सम्यञ्चौ। अन्तरैवैतावेतज्ज्योतिर्भविष्यति। अथोऽअन्योऽन्यं हिंसिष्यत इति। तेऽर्वाञ्चमन्यमुपादधुः, पराञ्चमन्यम्। स एष रश्मिभिरर्वाङ् तपति रुक्मः। प्राणैरेष ऊर्ध्वः पुरुषः।प्राञ्चमुपदधाति। प्राङ् ह्येषोऽग्निश्चीयते। - श. ७.४.१.१८
*चतुर्थी चितिः। अष्टादशस्तोमेष्टकोपधानम् :- तपो नवदशः इति। य एव नवदशः स्तोमः- तं तदुपदधाति। अथो संवत्सरो वाव तपो नवदशः। तस्य द्वादश मासाः, षडृतवः, संवत्सर एव तपो नवदशः। तद्यत्तमाह- तप इति। संवत्सरो हि सर्वाणि भूतानि तपति। - श. ८.४.१.१४
*द्वयोर्ऋतव्येष्टकयोरुपधानम् :– स उपदधाति। तपश्च तपस्यश्च शैशिरावृतू इति। नामनी एनयोरेते। नामभ्यामेवैने एतदुपदधाति। असौ वा आदित्यस्तपः। तस्मादेतावृतू अनन्तर्हितौ। तत्। यदेतस्मादेतावृतू अनन्तर्हितौ। तस्मादेतौ तपश्च तपस्यश्च। - श. ८.७.१.५
*अवकर्षणादिकं कर्म :– अथ पूर्वार्धेन दक्षिणा। अपामिदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनम्। अन्यांस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः पावकोऽअस्मभ्यं शिवो भव इति। - श. ९.१.२.२८
*उपवसथीयेऽहन् कर्तव्यं प्रयोगः :– अथाग्निमारोहति- नमस्ते हरसे शोचिषे, नमस्तेऽअस्त्वर्चिषे इति। अत्रैष सर्वोऽग्निः संस्कृतः। - - - अन्यांस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः, पावको अस्मभयं शिवो भव इति। - श. ९.२.१.२
*अथ प्रत्यवरोहति- प्राणदा अपानदा व्यानदा वर्चोदा वरिवोदाः इति। एतद्दा मेऽसीत्येवैतदाह। अन्यांस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः पावको अस्मभयं शिवो भव इति। - श. ९.२.१.१७
*अथ प्रवर्ग्यमुत्सादयति। आप्त्वा तं कामं – यस्मै कामायैनं प्रवृणक्ति। तं वै परिष्यन्द उत्सादयेत्। तप्तो वा एष शुशुचानो भवति। तं यदस्यामुत्सादयेत्- इमामस्य शुगृच्छेत्। यदप्सूत्सादयेत्- अपोऽस्य शुगृच्छेत्। अथ यत्परिष्यन्द उत्सादयति – तथो ह नैवापो हिनस्ति, नेमाम्। यदहाप्सु न प्रास्यति- तेनापो न हिनस्ति। अथ यत्समन्तमापः परियन्ति। शान्तिर्वा आपः। तेनो इमं न हिनस्ति। - श. ९.२.१.१९
*एतदु यज्ञे तपो-यदुपसदः। तपो वा उपसदः। तद्यत् तपसि चीयते। तस्मात्तापश्चितः। तद्वै यावदेवोपसद्भिश्चरन्ति-तावत्प्रवर्ग्येण। संवत्सरमेवोपसद्भिश्चरन्ति। संवत्सरं प्रवर्ग्येण। अहोरात्राणि वा उपसदः, आदित्यः प्रवर्ग्यः। अमुं तदादित्यमहोरात्रेषु प्रतिष्ठापयति। - श. १०.२.५.३
*प्रजापतिं वै प्रजाः सृजमानं पाप्मा मृत्युरभिपरिजघान। स तपोऽतप्यत-सहस्रं संवत्सरान्। पाप्मानं विजिहासन्। तस्य तपस्तेपानसैभ्यो लोमगर्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यायन्। तद् यानि तानि ज्योतींष्येतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानि नक्षत्राणि- तावन्तो लोमगर्ताः। यावन्तो लोमगर्तास्तावन्तः सहस्रसंवत्सरस्य मुहूर्त्ताः। स सहस्रतमे संवत्सरे सर्वोऽत्यपवत। स यः सोऽत्यपवत। अयमेव स वायुर्योऽयं पवते। अथ यं तं पाप्मानमत्यपवत- इदं तच्छरीरम्। क उ तस्मै मनुष्यः-यः सहस्रसंवत्सरमवरुन्धीत। विद्यया ह वा एवंवित्सहस्रसंवत्सरमवरुन्द्धे।- - - अथ य एवैवं वेद, यो वैतत्कर्म कुरुत- स हैवैतं सर्वं कृत्स्नं प्राजापत्यमग्निमाप्नोति। यं प्रजापतिराप्नोत्। तस्मादेवंवित्तप एव तप्येत। यदु ह वा एवंवित्तप एव तप्यते- आमैथुनात्सर्वं हास्य तत्स्वर्गं लोकमभिसम्भवति। -श. १०.४.४.१
*तदेष श्लोको भवति – विद्यया तदारोहन्ति यत्र कामाः परागताः। न तत्र दक्षिणा यन्ति नाविद्वांसस्तपस्विनः इति। न हैव तं लोकं दक्षिणाभिः, न तपसा, अनेवंविदश्नुते। - श. १०.५.४.१६
*उपास्यस्य हिरण्यगर्भस्य स्वरूपप्रतिपादकं ब्राह्मणम् :– तस्यार्चत अपोऽजायन्त। अर्चते वै मे कमभूदिति। तदेवार्क्यस्यार्कत्वम्। - - आपो वाऽअर्कः। तद् यदपां शर आसीत्- तत्समहन्यत। सा पृथिव्यभवत्। तस्यामश्राम्यत्- तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य तेजो रसो निरवर्तताग्निः। स त्रेधाऽऽत्मानं व्यकुरुत – आदित्यं तृतीयम्, वायुं तृतीयम्। - श. १०.६.५.२
*सोऽकामयत- भूयसा यज्ञेन भूयो यजेयेति। सोऽश्राम्यत्, स तपोऽतप्यत। तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य यशो वीर्यमुदक्रामत्। प्राणा वै यशः, वीर्यं तत् प्राणेषूत्क्रान्तेषु शरीरं श्वयितुमध्रियत। तस्य शरीर एव मन आसीत्।– श. १०.६.५.६
*सृष्टि ब्राह्मणम् :– आपो ह वा इदम् अग्रे सलिलमेवास। ता अकामयंत। कथं नु प्रजायेमहीति। ता अश्राम्यन्। तास्तपोऽतप्यंत। तासु तपस्तप्यमानासु हिरण्मयमांडं संबभूव। अजातो ह तर्हि संवत्सर आस। तदिदं हिरण्मयमांडं यावत्संवत्सरस्य वेला तावत्पर्यप्लवत। ततः संवत्सरे पुरुष समभवत्, स प्रजापतिः। तस्मादु संवत्सर एव स्त्री वा गौर्वा वडवा वा विजायते। - श. ११.१.६.१
*दर्शपूर्णमासयागस्य विशिष्ट फलसाधनता प्रतिपादनम् :- संवत्सरो यजमानः, तमृतवो याजयंति। वसंत आग्नीध्रः। तस्माद्वसंते दावाश्चरंति। तद्ध्यग्निरूपम्। ग्रीष्मोऽध्वर्युः। तप्त इव वै ग्रीष्मः। तप्तमिवाध्वर्युर्निष्क्रामति। वर्षा उद्गाता। तस्माद्यदा बलवद्वर्षति। साम्न इवोपब्दिः क्रियते। शरद्ब्रह्मा। - - - श. ११.२.७.३२
*मित्रविन्देष्टिः :– प्रजापतिर्वै प्रजाः सृजमानोऽतप्यत। तस्माच्छ्रांतात्तेपानाच्छ्रीरुदक्रामत्। सा दीप्यमाना भ्राजमाना लेलायंत्यतिष्ठत्। तां दीप्यमानां भ्राजमानां लेलायंतीं देवा अभ्यध्यायन्। ते प्रजापतिमब्रुवन् – हनामेमाम् , आ इदमस्या ददामहा इति। स होवाच – स्त्री वा एषा यच्छ्रीः। - श.११.४.३.१
*यदि ह वा अप्यभ्यक्तः अलंकृतः सुहितः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते। आ हैव स नखाग्रेभ्यस्तप्यते। य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते। - श. ११.५.७.४
*सर्वप्रायश्चित्तविधायकं ब्राह्मणम् :- प्रजापतिर्वा इदमग्र आसीदेक एव। सोऽश्राम्यत्। स तपोऽतप्यत। तस्माच्छ्रांतात्तेपानात्त्रयो लोका असृज्यंत- पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौः। स इमांस्त्रीन् लोकानभितताप। तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रीणि ज्योतींष्यजायंत- अग्निर्योऽयं पवते सूर्यः। स इमानि त्रीणि ज्योतींष्यभितताप। तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायंत। अग्नेर्ऋग्वेदः। वायोर्यजुर्वेदः। सूर्यात्सामवेदः। स इमांस्त्रीन्वेदानभितताप। तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्रीणि शुक्राण्यजायंत। भूरित्यृग्वेदात्। भुव इति यजुर्वेदात्। स्वरिति सामवेदात्। - श. ११.५.८.१
*संवत्सरमेव तापश्चितस्यांजःसवमपश्यन्। ते हि स्तोमा भवन्ति। तानि पृष्ठानि। तानि च्छन्दांसि। तापश्चितमेव सहस्रसंवत्सरस्यांजःसवमपश्यन्। ते हि स्तोमा भवन्ति। तानि पृष्ठानि। तानि च्छंदांसि। - - - - स वा एष एव सहस्रसंवत्सरस्य प्रतिमा, यत्तापश्चितः। एष प्रजानां प्रजात्यै। यत्तापश्चितः। - श. १२.३.३.१४
*प्रजापतिरकामयत। अश्वमेधेन यजेयेति। सोऽश्राम्यत्। स तपोऽतप्यत। तस्य श्रान्तस्य तप्तस्य सप्तधाऽऽत्मनो देवता अपाक्रामन्। सा दीक्षाऽभवत्। स एतानि वैश्वदेवान्यपश्यत्। तान्यजुहोत्। तैर्वै स दीक्षामवारुन्ध। - श. १३.१.७.१
*पुरुषमेधम् :- ब्रह्मणे ब्राह्मणम् – आलभते। - - - क्षत्त्राय राजन्यम्। - - - मरुद्भ्यो वैश्यम्। - - तपसे शूद्रम्। तपो वै शूद्रः। तप एव तत्तपसा समर्धयति। - श. १३.६.२.१०
*सर्वमेधः- ब्रह्म वै स्वयंभु तपोऽतप्यत। तदैक्षत। न वै तपस्यानंत्यमस्ति। हंत। भूतेष्वात्मानं जुहवानि। भूतानि चात्मनीति। - श. १३.७.१.१
*प्रवर्ग्यसृष्टिप्रतिपादक ब्राह्मणम् :- संवत्सरवासिनेऽनुब्रूयात्। एष वै संवत्सरः। य एष तपति। एष उ प्रवर्ग्यः। तदेतमेवैतत्प्रीणाति। - - तिस्रो रात्रीर्व्रतं चरति। त्रयो वा ऋतवः संवत्सरस्य। संवत्सर एषः। य एष तपति। एष उ प्रवर्ग्यः। तदेतमेवैतत्प्रीणाति। - - तप्तमाचामति। तपस्व्यनुब्रवा इति। अमांसाश्यनुब्रूते। तप्स्व्यनुब्रवा इति। - - - -अशूद्रोच्छिष्टी। एष वै घर्मः। य एष तपति। सैषा श्रीः। सत्यं ज्योतिः। अनृतं स्त्री शूद्रः श्वा कृष्णः शकुनिः। - श. १४.१.१.२७
*घर्मसन्दीपनं ब्राह्मणम् :– स प्रोक्षति। यमाय त्वा इति। एष वै यमः। य एष तपति। एष हीदं सर्वं यमयति। एतेनेदं सर्वं यतम्। एष उ प्रवर्ग्यः। - - -मखाय त्वा इति। एष वै मखः। य एष तपति। एष उ प्रवर्ग्यः। - - - -सूर्यस्य त्वा तपसे इति। एष वै सूर्यः। य एष तपति। एष उ प्रवर्ग्यः। - श. १४.१.३.४
*अग्नेर्वा एतद्रेतः- यद्धिरण्यम्। - - अथो पृथिव्यु ह वा एतस्माद्बिभयाञ्चकार। यद्वै माऽयं तप्तः शुशुचानो न हिंस्यादिति। तदेवास्या एतदंतर्दधाति। रजतं भवति। रजतेव हीयं पृथिवी। - श. १४.१.३.१४
*तदुभयत आदीप्ता मौञ्जाः प्रलवा भवन्ति। - - -तस्मिन्प्रवृज्यमाने पत्नी शिरः प्रोर्णुते। तप्तो वा एष शुशुचानो भवति। नेन्मेऽयं तप्तः शुशुचानश्चक्षुः प्रमुष्णादिति। - श. १४.१.३.१६
*प्रवर्ग्येऽवकाशोपस्थानं ब्राह्मणम् :– रुचितो घर्मः। - - - गर्भो देवानाम् इति। एष वै गर्भो देवानाम्। य एष तपति। एष हीदं सर्वं गृभ्णाति। एतेनेदं सर्वं गृभीतम्। एष उ प्रवर्ग्यः।- - - - धर्ता दिवो विभाति तपसस्पृथिव्याम् इति। धर्ता ह्येष दिवो विभाति तपसस्पृथिव्याम्। धर्ता देवो देवानाममर्त्यस्तपोजाः इति। - - - वाचमस्मे नियच्छ देवायुवम् इति। - - - अपश्यं गोपामनिपद्यमानम् इति। एष वै गोपाः। य एष तपति। एष हीदं सर्वं गोपायति। - श. १४.१.४.२
*प्रवर्ग्याङ्गभूतं दक्षिणाद्रव्यदानम् :– अथ यैषा घर्मदुघा। तामध्वर्यवे ददाति। तप्त इव वै घर्मः। तप्तमिवावध्वर्युर्निष्क्रामति।- - अथ यैषा यजमानस्य व्रतदुघा । तां होत्रे ददाति। यज्ञो वै होता। - - अथ यैषा पत्न्यै व्रतदुघा। तामुद्गातृभ्यो ददाति। - श. १४.३.१.३३
*सप्तान्न ब्राह्मणं वा संवर्गविद्या ब्राह्मणम् :– अथाधिदेवतम्। ज्वलिष्याम्येवाहमित्यग्निर्दध्रे। तप्स्याम्यहमित्यादित्यः। भास्याम्यहमिति चंद्रमाः। एवमन्या देवता यथादेवतम्। स यथैषां प्राणानां मध्यमः प्राणः। एवमेतासां देवतानाम् वायुः। म्लोचंति हि अन्या देवताः। न वायुः। - - - श. १४.४.३.३३
*ज्वरादिव्याध्यादेस्तपस्त्वोपासनाब्राह्मणम् :– एतद्वै परमं तपः। यद्व्याहितस्तप्यते। परमं हैव लोकं जयति। य एवं वेद। एतद्वै परमं तपः। यं प्रेतमरण्यं हरन्ति। परमं हैव लोकं जयति। य एवं वेद। एतद्वै परमं तपः। यं प्रेतमग्नावभ्यादधति। परमं हैव लोकं जयति। य एवं वेद। - श. १४.८.११.१
*अग्निर्मुखं प्रथमो देवतानामग्निश्च विष्णो तप उत्तमं मह इत्याग्नावैष्णवस्य हविषो याज्यानुवाक्ये भवतः। - ऐ.ब्रा. १.४
*वेनः – पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदे वियत्पवित्रं धिषणा अतन्वतेति पूतवन्तः प्राणास्त इमेऽवाञ्चो रेतस्यो मूत्र्यः पुरीष्या इत्येतानेवास्मिंस्तद्दधाति – ऐ.ब्रा. १.२०
*महावीर पात्र धारण किए हुए होता के मन्त्र – तप्तो वां घर्मो – ऐ.ब्रा. १.२२
*देवा वै यज्ञेन श्रमेण तपसाऽऽहुतिभिः स्वर्गं लोकमजयंस्तेषां वपायामेव हुतायां स्वर्गो लोकः प्राख्यायत- - - ऐ.ब्रा. २.१३
*ऐन्द्रवायव ग्रहः - उपहूता वाक्सह प्राणेनोप मां वाक्सह प्राणेन ह्वयतामुपहूता ऋषयो दैव्यासस्तनूपावानस्तन्वस्तपोजा उप मामृषयो दैव्यासो ह्वयन्तां तनूपावानस्तन्वस्तपोजा इति – ऐ.ब्रा. २.२७
*प्रजापतिर्वा इदमेक एवाग्र आस, सोऽकामयत प्रजायेय भूयान् स्यामिति, स तपोऽतप्यत, स वाचमयच्छत्, स संवत्सरस्य परस्ताद् व्याहरद् द्वादशकृत्वो द्वादश पदा वा एषा निविदेतां वाव तां निविदं व्याहरत् तां सर्वाणि भूतान्यन्वसृज्यन्त। - ऐतरेय ब्राह्मण २.३३
*एतानि वा एतेन षट् प्रतिष्ठापयति, द्यौरन्तरिक्षे प्रतिष्ठिता, अन्तरिक्षं पृथिव्याम्, पृथिव्यप्स्वापः सत्ये, सत्यं ब्रह्मणि, ब्रह्म तपसीत्येता एव तत्प्रतिष्ठाः – ऐ.ब्रा. ३.६
*सा जगती चतुरक्षरा प्रथमोदपतत्, सा पतित्तवाऽर्धमध्वनो गत्वाऽश्राम्यत् सा परास्य त्रीण्यक्षराण्येकाक्षरा भूत्वा दीक्षां च तपश्च हरन्ती पुनरभ्यवापतत् तस्मात् तस्य वित्ता दीक्षा वित्तं तपो यस्य पशवः सन्ति – ऐ.ब्रा. ३.२५
*ऋभवो वै देवेषु तपसा सोमपीथमभ्यजयंस्तेभ्यः प्रातःसवने वाचि कल्पयिषंस्तानग्निर्वसुभिः प्रातःसवनादनुदत, - - -ऐ.ब्रा. ३.३०
*चतुर्विंश/महाव्रतीयम् अहः - ये वा एवं विद्वांस एतदहरुपयन्त्याप्त्वा वै तेऽहःशः संवत्सरमाप्त्वाऽर्धमासश आप्त्वा मासश आप्त्वा स्तोमांश्च च्छन्दांसि च आप्त्वा सर्वा देवतास्तप एव तप्यमानाः सोमपीथं भक्षयन्तः संवत्सरमभिषुण्वन्त आसते। - ऐ.ब्रा. ४.१३
*प्रजापतिरकामयत प्रजायेय भूयान् स्यामिति, स तपोऽतप्यत, स तपस्तप्त्वेमं द्वादशाहमपश्यदात्मन एवाङ्गेषु च प्राणेषु च, तमात्मान एवाङ्गेभ्यश्च प्राणेभ्यश्च द्वादशधा निरमिमीत, तमाहरत, तेनायजत, ततो वै सोऽभवदात्मना प्र प्रजया पशुभिरजायत। - ऐ.ब्रा. ४.२३
*प्रजापतिरकामयत प्रजायेय भूयान् स्यामिति, स तपोऽतप्यत, स तपस्तप्त्वेमाँल्लोकानसृजत-- पृथिवीमन्तरिक्षं दिवं, ताँल्लोकानभ्यतपत्, तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि ज्योतींष्यजायन्ताग्निरेव पृथिव्या अजायत, वायुरन्तरिक्षादादित्यो दिवस्तानि ज्योतींष्यभ्यतपत्, तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वेदा अजायन्त – ऋग्वेद एवाग्नेरजायत, यजुर्वेदो वायोः, सामवेद आदित्यात्, तान् वेदानभ्यतपत् तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रीणि शुकाण्यजायन्त, भूरित्येव ऋग्वेदादजायत, भुव इति यजुर्वेदात्, स्वरिति सामवेदात्। तानि शुक्राण्यभ्यतपत्, तेभ्योऽभितप्तेभ्यस्त्रयो वर्णा अजायन्ताकार उकारो मकार इति, तानेकधा समभरत् तदेतदो३मिति, तस्मादोमोमिति प्रणोत्योमिति वै स्वर्गो लोक ओमित्यसौ योऽसौ तपति। - ऐ.ब्रा. ५.३२
*तदाहुर्यस्य सर्व एवाग्नय उपशाम्येरन्, का तत्र प्रायश्चित्तिरिति, सोऽग्नये तपस्वते जनद्वते पावकवतेऽष्टाकपालं पुराळाशं निर्वपेत् तस्य याज्यानुवाक्ये आयाहि तपसा जनेष्वा नो याहि तपसा जनेष्वित्याहुतिं वाऽऽहवनीये जुहुयादग्नये तपस्वते जनद्वते पावकवते स्वाहेति, सा तत्र प्रायश्चित्तिः – ऐ.ब्रा. ७.८
*तदाहुर्य आहिताग्निर्यदि पवित्रं नश्येत्, का तत्र प्रायश्चित्तिरिति, सोऽग्नये पवित्रवतेऽष्टाकपालं पुराळाशं निर्वपेत्, तस्य याज्यानुवाक्ये पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते, तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पद इत्याहुतिं वाहवनीये जुहुयादग्नये पवित्रवते स्वाहेति – ऐ.ब्रा. ७.९
*कपालोपधानम् – भृगू॑णा॒मङ्गि॑रसां॒ तप॑सा तप्यध्वं॒। यानि॑ घ॒र्मे क॒पाला॑न्युपचि॒न्वन्ति॑ वे॒धसः॑। पू॒ष्णस्तान्यपि॑ व्र॒त इ॑न्द्रवा॒यू वि मु॑ञ्चताम्।। - तै.सं. १.१.७.२
*दीक्षा – आकू॑त्यै प्र॒युजे॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ मे॒धायै॒ मन॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॑ दी॒क्षायै॒ तप॑से॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ सर॑स्वत्यै पू॒ष्णे॑ऽग्नये॒ स्वाहा- - -तै.सं. १.२.२.१
*तानूनप्त्रम् – अनु॑ मे दी॒क्षां दी॒क्षाप॑तिर्मन्यता॒मनु॒ तप॒स्तप॑स्पति॒रञ्ज॑सा स॒त्यमुप॑ गेषँ सुवि॒ते मा॑ धाः। - तै.सं. १.२.१०.२
*कृ॒णु॒ष्व पाजः॒ प्रसि॑तिं॒ न पृ॒थ्वीं या॒हि राजे॒वाम॑वाँ॒ इभे॑न। तृ॒ष्वीमनु॒ प्रसि॑तिं द्रूणा॒नोऽस्ता॑ऽसि॒ विध्य॑ र॒क्षस॒स्तपि॑ष्ठैः।।तव॑ भ्र॒मास॑ आशु॒या प॑त॒न्त्यनु॑ स्पृश धृष॒ता शोशु॑चानः। तपूँ॑ष्यग्ने जु॒ह्वा॑ पत॒ङ्गानस॑न्दितो॒ वि सृ॑ज॒ विष्व॑गु॒ल्काः।। - तै.सं. १.२.१४.१
*ऋतुग्रहाः – मधु॑श्च॒ माध॑वश्च शु॒क्रश्च॒ शुचि॑श्च॒ नभ॑श्च नभ॒स्य॑श्चे॒षश्चो॒र्जश्च॒ सह॑श्च सह॒स्य॑श्च॒ तप॑श्च तप॒स्य॑श्चोपया॒मगृ॑हीतोऽसि - - तै.सं. १.४.१४.१
*स्रुवाहुतिमन्त्राः -- - - -तप्य॒त्वै स्वाहा॒ तप॑ते॒ स्वाहा॑ – तै.सं. १.४.३५.१
*अग॑न्म॒ सुवः॒ सुव॑रगन्म सं॒दृश॑स्ते॒ मा छि॑त्सि॒ यत्ते॒ तप॒स्तस्मै॑ ते॒ माऽऽ वृ॑क्षि - - तै.सं. १.६.६.१, १.७.६.१
*इन्द्राय घर्मवते पुरोडाशमेकादशकपालं निर्वपेद् ब्रह्मवर्चसकामो – आ॒मासु॑ प॒क्वमै॑रय॒ आ सूर्यँ॑ रोहयो दि॒वि। घ॒र्मं न साम॑न् तपता सुवृ॒क्तिभि॒र्जुष्टं॒ गिर्व॑णसे॒ गिरः॑।। - तै.सं. १.६.१२.२
*अभिषेकजलसंस्कारमन्त्राः – अनि॑भृष्टमसि वा॒चो बन्धु॑स् तपो॒जाः सोम॑स्य दा॒त्रम॑सि शु॒क्रा वः॑ शु॒क्रेणोत्पु॑नामि – तै.सं. १.८.१२.१
*स इ॑षुमा॒त्रमि॑षुमात्रं॒ विष्व॑ङ्ङवर्धत॒ - - - तद् वृ॒त्रस्य॑ वृत्र॒त्वं। तस्मा॒दिन्द्रो॑ऽबिभे॒दपि॒ त्वष्टा॒ तस्मै॒ त्वष्टा॒ वज्र॑मसिञ्च॒त् तपो॒ वै स् वज्र॑ आसी॒त् तमुद्य॑न्तुं॒ नाश॑क्नो॒त् - - - तै.सं. २.४.१२.२
*प्र॒जाप॑तिरकामयत प्र॒जाः सृ॑जे॒येति॒ स तपो॑ऽतप्यत॒ स स॒र्पान॑सृजत॒ सो॑ऽकामयत प्र॒जाः सृ॑जे॒येति॒ स द्वि॒तीय॑मतप्यत॒ स वयाँ॑स्यसृजत॒ सो॑ऽकामयत प्र॒जाः सृ॑जे॒येति॒ स तृ॒तीय॑मतप्यत॒ स ए॒तं दी॑क्षितवा॒दम॑पश्य॒त् तम॑वद॒त् ततो॒ वै स प्र॒जा अ॑सृजत॒ यत् तपस्त॒प्त्वा दीक्षितवा॒दं वदति प्र॒जा ए॒व तद्यजमानः सृजते॒ - - - - यद्वै दी॑क्षि॒तम॑भि॒वर्ष॑ति दि॒व्या आपोऽशा॑न्ता॒ ओजो॒ बलं॑ दी॒क्षां तपो॑ऽस्य॒ निर्घ्न॑न्त्युन्द॒तीर्बलं॑ ध॒त्तौजो॑ धत्त॒ बलं॑ धत्त॒ मा मे॑ दी॒क्षां मा तपो॒ निर्व॑धि॒ष्टेत्या॑है॒तदे॒व सर्व॑मा॒त्मन् ध॑त्ते॒ नास्यौजो॒ बलं॒ न दी॒क्षां न तपो॒ निर्घ्न॑न्ति – तै.सं. ३.१.१.१
*द्वादशाहे पृश्निग्रहाः ः—प्र॒जाप॑तिर्वि॒राज॑मपश्य॒त् तया॑ भू॒तं च॒ भव्यं॑ चासृजत॒ तामृषि॑भ्यस्ति॒रो॑ऽदधा॒त् तां ज॒मद॑ग्नि॒स्तप॑साऽपश्य॒त् तया॒ वै स पृश्नी॒न् कामा॑नसृजत॒ तत् पृश्नी॑नां पृश्नि॒त्वं – तै.सं. ३.३.५.२
*अग्न्युत्पादनम् – मित्रै॒तामुखां त॑पै॒षा मा भे॑दि। ए॒तां ते॒ परि॑ ददा॒म्यभि॑त्त्यै।। - तै.सं. ४.१.९.२
*सीद॒ त्वं मा॒तुर॒स्या उ॒पस्थे॒ विश्वा॑न्यग्ने व॒युना॑नि वि॒द्वान्। मैना॑म॒र्चिषा॒ मा तप॑सा॒ऽभि शू॑शुचो॒ऽन्तर॑स्याँ शु॒क्रज्यो॑ति॒र्वि भा॑हि।। अ॒न्तर॑ग्ने रु॒चा त्वमु॒खायै॒ सद॑ने॒ स्वे। तस्या॒स्त्वँ हर॑सा॒ तप॒ञ् जात॑वेदः शि॒वो भ॑व।। - तै.सं. ४.१.९.३
*आसन्द्याम् उख्याग्निस्थापनम् – सीद॒ त्वं मा॒तुर॒स्या उ॒पस्थे॒ विश्वा॑न्यग्ने व॒युना॑नि वि॒द्वान्। मैना॑म॒र्चिषा मा तप॑सा॒ऽभि शू॑शुचो॒ऽन्तर॑स्याँ शु॒क्रज्यो॑ति॒र्वि भा॑हि।। - तै.सं. ४.२.१.५
*अक्ष्णयास्तोमीया इष्टकाः – आ॒शुस्त्रि॒वृद्भा॒न्तः प॑ञ्चद॒शो व्यो॑म सप्तद॒शः प्रतू॑र्तिरष्टाद॒शस्तपो॑ नवद॒शो - - -तै.सं. ४.३.८.१
*व्युष्टीष्टकाः – ए॒का॒ष्ट॒का तप॑सा॒ तप्य॑माना ज॒जान॒ गर्भं॑ महि॒मान॒मिन्द्र॑म्। तेन॒ दस्यू॒न् व्य॑सहन्त दे॒वा ह॒न्ताऽसु॑राणामभव॒च्छची॑भिः।। - तै.सं. ४.३.११.३
*साकमेधे याज्यानुवाक्याः – यो नो॒ मर्तो॑ वसवो दुर्हृणा॒युस्ति॒रः स॒त्यानि॑ मरुतो॒ जिघाँ॑सात्। द्रु॒हः पाशं॒ प्रति॒ स मु॑चीष्ट॒ तपि॑ष्ठेन॒ तप॑सा हन्तना॒ तम्।। - तै.सं. ४.३.१३.४
*इन्द्रतन्वाख्या इष्टकाः – - --- - - ऋ॒तुभिः॑ प्र॒भुः संवत्स॒रेण॑ परि॒भूस्तप॒साऽना॑धृष्टः॒ सूर्यः॒ सन् त॒नूभिः॑ – तै.सं. ४.४.८.१
*ऋतव्या इष्टकाः – - - - -तप॑श्च तप॒स्य॑श्च शैशि॒रावृ॒तू – तै.सं. ४.४.११.१
*परिषेचनादिमन्त्राः – अ॒पामि॒दं न्यय॑नँ समु॒द्रस्य॑ नि॒वेश॑नम्। अ॒न्यं ते॑ अ॒स्मत् त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒को अ॒स्मभयँ॑ शि॒वो भ॑व।। नम॑स्ते॒ हर॑से शो॒चिषे॒ नम॑स्ते अस्त्व॒र्चिषे॑। अ॒न्यं ते॑ अ॒स्मत् त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒को अ॒स्मभ्यँ॑ शि॒वो भ॑व।। - तै.सं. ४.६.१.३
*प्रा॒ण॒दा अ॑पान॒दा व्या॑न॒दाश्च॑क्षु॒र्दा व॑र्चो॒दा व॑रिवो॒दाः। अ॒न्यं ते॑ अ॒स्मत् त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒को अ॒स्मभ्यँ॑ शि॒वो भ॑व।। - तै.सं. ४.६.१.५
*अग्निप्रणयनम् – रा॒यस्पोषे॒ अधि॑ य॒ज्ञो अस्था॒त् समि॑द्धे अ॒ग्नावधि॑ मामहा॒नः। उ॒क्थप॑त्र॒ ईड्यो॑ गृभी॒तस्त॒प्तं घ॒र्मं प॑रि॒गृह्या॑यजन्त।। - तै.सं. ४.६.३.२
*अश्वस्तोमीया होमाः – मा त्वा॑ तपत् प्रि॒य आ॒त्माऽपि॒यन्तं मा स्वधि॑तिस्त॒नुव॒ आ ति॑ष्ठिपत् ते। मा ते॑ गृ॒ध्नुर॑विश॒स्ताऽति॒हाय॑ छि॒द्रा गात्रा॑ण्य॒सिना॒ मिथू॑ कः।। - तैत्तिरीय संहिता ४.६.९.३
*वसोर्धारा – दी॒क्षा च॑ मे॒ तप॑श्च म - - - य॒ज्ञेन॑ कल्पेताम् – तै.सं. ४.७.९.२
*अग्नियोगः – येनर्ष॑य॒स्तप॑सा स॒त्रमास॒तेन्धा॑ना अ॒ग्निँ सुव॑रा॒भर॑न्तः। तस्मि॑न्न॒हं नि द॑धे॒ नाके॑ अ॒ग्निमे॒तं यमा॒हुर्मन॑वः स्ती॒र्णब॑र्हिषम्।। - तै.सं. ४.७.१३.२
*अश्वमेधसंबन्धिप्रयाजयाज्याभिधानम् – प्र॒जापते॒स्तप॑सा वावृधानः स॒द्यो जा॒तो द॑धिषे य॒ज्ञम॑ग्ने। स्वाहा॑कृतेन ह॒विषा॑ पुरोगा या॒हि सा॒ध्या ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः।। - तै.सं. ५.१.११.४
*अक्ष्णयास्तोमीयादीनामभिधानम् – तपो॑ नवद॒श इत्यु॑त्तर॒तस्तस्मा॑त्स॒व्यः हस्त॑योस्तप॒स्वित॑रो॒ – तै.सं. ५.३.३.३
*यानि॒ वै छन्दाँ॑सि सुव॒र्ग्या॑ण्यास॒न्तैर्दे॒वाः सु॑व॒र्गं लो॒कमा॑य॒न्तेनर्ष॑यः अ॒श्रा॒म्य॒न्ते तपो॑ऽतप्यन्त॒ तानि॒ तप॑साऽपश्य॒न्तेभ्य॑ ए॒ता इष्ट॑का॒ नि॑रमिम॒तेव॒श्छन्दो॒ वरि॑व॒श्छन्द॒ इति॒ ता उपा॑दधत॒ ताभि॒र्वै ते सु॑व॒र्गं लो॒कमा॑यन् – तै.सं. ५.३.५.४
*अ॒न्यं ते॑ अ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तय॒ इत्या॑ह॒ यमे॒व द्वेष्टि॒ तम॑स्य शु॒चाऽर्पयति – तै.सं. ५.४.४.५
*यूपैकत्वादीनामभिधानम् – आपं॑ त्वाऽग्ने॒ मन॒साऽऽपं॑ त्वाऽग्ने॒ तप॒साऽऽपं॑ त्वाऽग्ने दी॒क्षयाऽऽपं॑ त्वाऽग्न उप॒सद्भिः॑ - - -ए॒षा वा अ॒ग्नेराप्ति॒स्तयै॒वैन॑माप्नोति। - तै.सं. ५.५.७.५
*भ॒द्रं पश्य॑न्त॒ उप॑ सेदु॒रग्रे॒ तपो॑ दी॒क्षामृष॑यः सुव॒र्विदः॑। ततः॑ क्ष॒त्त्रं बल॒मोज॑श्च जा॒तं तद॒स्मै दे॒वा अ॒भि सं न॑मन्तु। - तै.सं. ५.७.४.३
*अरुणया सोमक्रयाभिधानम् – जग॒त्युद॑पत॒च्चतु॑र्दशाक्षरा सती॒ - - -सा प॒शुभि॑श्च दी॒क्षया॒ चाऽग॑च्छ॒त् - - -त्रि॒ष्टुगुद॑पत॒त्त्रयो॑दशाक्षरा स॒ती - - -सा दक्षि॑णाभिश्च तप॑सा॒ चाऽग॑च्छ॒त् - - -ए॒तत्खलु॒ वाव तप॒ इत्या॑हु॒र्यः स्वं ददा॒तीति॑ – तै.सं. ६.१.६.३
*तानूनप्त्रेष्ट्यभिधानम् – आ॒त्मान॑मे॒व दी॒क्षया॑ पाति प्र॒जाम॑वान्तरदी॒क्षया॑ संत॒रां मेख॑लाँ स॒माय॑च्छते प्र॒जा ह्या॑त्मनोऽन्त॑रतरा त॒प्तव्र॑तो भवति॒ मद॑न्तीभिर्मार्जयते॒ – तै.सं. ६.२.२.७
*व्रतनिरूपणम् -- च॒तुरोऽग्रे॒ स्तना॑न्व्र॒तमुपै॒त्यथ॒ त्रीनथ॒ द्वावथैक॑मे॒तद्वै सु॑जघ॒नं नाम॑ व्र॒तं त॑प॒स्यँ॑ सु॒वर्ग्य॑म् – तै.सं. ६.२.५.२
*गर्गत्रिरात्राभिधानम् – ते दे॒वाः प्र॒जाप॑तिमब्रुव॒न्प्र जा॑यामहा॒ इति॒ सो॑ऽब्रवीत् यथा॒ऽहं यु॒ष्माँस्तप॒साऽसृ॑क्ष्ये॒वं तप॑सि प्र॒जन॑नमिच्छध्व॒मिति॒ तेभ्यो॒ऽग्निमा॒यत॑नं॒ प्राय॑च्छदे॒तेना॒ऽऽयत॑नेन श्राम्य॒तेति॒ - - तै.सं. ७.१.५.२
*ब्रा॒ह्म॒णानृ॒त्विज दे॒वान्य॒ज्ञस्य॒ तप॑सा ते सवा॒हमा हुवे। - तै.सं. ७.३.११.१
*अ॒ग्निना॒ तपोऽन्व॑भवद्वा॒चा ब्रह्म म॒णिना॑ रूपाणी - - -तै.सं. ७.३.१४.१
*याः सरू॑पा॒ विरू॑पा॒ एक॑रूपा॒ यासा॑म॒ग्निरिष्ट्या॒ नामा॑नि॒ वेद॑। या अङ्गि॑रस॒स्तप॑से॒ह च॒क्रुस्ताभ्यः॑ पर्जन्य॒ महि॒ शर्म॑ यच्छ। - तै.सं. ७.४.१७.१
*- - -सू॑पसद॒नो॑ऽग्निः स्व॑ध्य॒क्षम॒न्तरि॑क्षँ सुपा॒वः पव॑मानः सूपस्था॒ना द्यौः शि॒वम॒सौ तप॑न्यथापू॒र्वम॑होरा॒त्रे पञ्चद॒शिनो॑ऽर्धमा॒साः - - - तै.सं. ७.५.२०.१
*अग्न्याधानम् – प्र॒जाप॑तिः प्र॒जा अ॑सृजत। स रि॑रिचा॒नो॑ऽमन्यत। स तपो॑ऽतप्यत। स आ॒त्मन्वी॒र्य॑मपश्यत्। तद॑वर्धत। तद॑स्मा॒त्सह॑सो॒र्ध्वम॑सृज्यत। सा वि॒राड॑भवत्। तां दे॑वासु॒रा व्य॑गृह्णत। सो॑ऽब्रवीत्प्र॒जाप॑तिः। मम॒ वा ए॒षा। दोहा॑ ए॒व यु॒ष्माक॒मिति॑। - तै.ब्रा. १.१.१०.१
*जा॑तवेदो॒ भुव॑नस्य॒ रेतः। इ॒ह सि॑ञ्च॒ तप॑सो॒ यज्ज॑नि॒ष्यते॑। अ॒ग्निम॑श्व॒त्थादधि॑ हव्य॒वाह॑म्। श॒मी॒ग॒र्भाज्ज॒नय॒न्यो म॑यो॒भूः।(तस्मिन्नुपव्युषमरणी निष्टपति) – तै.ब्रा. १.२.१.१५
*राजसूयगतचातुर्मास्यशेष – प्र॒जा वै स॒त्रमा॑सत॒ तप॒स्तप्य॑माना॒ अजु॑ह्वतीः। दे॒वा अ॑पश्यं चम॒सं घृ॒तस्य॑ पू॒र्णँ स्व॒धाम्। तमुपोद॑तिष्ठ॒न्तम॑जुहवुः। तेना॑र्धमा॒स ऊर्ज॒मवा॑रुन्धत। तस्मा॑दर्धमा॒से दे॒वा इ॑ज्यन्ते। पि॒तरो॑ऽपश्यं चम॒सं घृ॒तस्य॑ पू॒र्णँ स्व॒धाम्। तमुपोद॑ तिष्ठ॒न्तम॑जुहवुः। तेन॑ मा॒स्यूर्ज॒मवा॑रुन्धत। तस्मा॑न्मा॒सि पि॒तृभ्यः॑ क्रियते। म॒नु॒ष्या॑ अपश्यं चम॒सं घृ॒तस्य॑ पू॒र्णँ स्व॒धाम्। तमुपोद॑तिष्ठ॒न्तम॑जुहवुः। तेन॑ द्व॒यीमूर्ज॒मवा॑रुन्धत। - - - -तै.ब्रा. १.४.९.१
*नक्षत्रेष्टका – बृह॒स्पते॑र्म॒ध्यंदि॑नः। तत्पुण्यं॑ तेज॒स्व्यहः॑। तस्मा॒त्तर्हि॒ तेऽक्ष्णि॑ष्ठं तपति। - तै.ब्रा. १.५.३.२
*चातुर्मास्यशेषा वपनमन्त्राः – अ॒ग्निस्ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॑। तप॒ आक्रा॑न्तमु॒ष्णिहा॑। शि॒रस्तप॒स्याहि॑तम्। वै॒श्वा॒न॒रस्य॒ तेज॑सा। ऋ॒तेना॑स्य॒ निव॑र्तये। स॒त्येन॒ परि॑वर्तये। तप॑सा॒ऽस्यानु॑वर्तये। शि॒वेना॒स्योप॑वर्तये। श॒ग्मेना॑स्या॒भिव॑र्तये।- - - तेन॑ शकेयं॒ तेन॑ राध्यासम्। - तै.ब्रा. १.५.५.१, ३, ७
*अग्निहोत्रम् -- प्र॒जाप॑तिर॒ग्निम॑सृजत। तं प्र॒जा अन्व॑सृज्यन्त। तम॑भा॒ग उपा॑स्त। सो॑ऽस्य प्र॒जाभि॒रपा॑क्रामत्। तम॑व॒रुरु॑त्समा॒नोऽन्वै॑त्। तम॑व॒रुध॒न्नाश॑क्नोत्। स तपो॑ऽतप्यत। सो॑ऽग्निरुपा॑रम॒ताताता॑पि॒ वै स्य प्र॒जाप॑ति॒रिति॑। - - - तै.ब्रा. २.१.२.१
*चतुर्होतृमन्त्र – प्र॒जाप॑तिर्देवासु॒रान॑सृजत। स इन्द्र॒मपि॒ नासृ॑जत। तं दे॒वा अ॑ब्रुवन्। इन्द्रं॑ नो जन॒येति॑। सो॑ऽब्रवीत्। यथा॒ऽहं यु॒ष्माँस्तप॒साऽसृ॑क्षि। ए॒वमिन्द्रं॑ जनयध्व॒मिति॑। ते तपो॑ऽतप्यन्त। त आ॒त्मन्निन्द्र॑मपश्यन्। - - तै.ब्रा. २.२.३.३
*इ॒दं वा अग्रे॒ नैव किंच॒नाऽऽसीत्. न द्यौरा॑सीत्। न पृ॑थि॒वी। नान्तरिक्ष॑म्। तदस॑दे॒व सन्मनो॑ऽकुरुत॒ स्यामिति॑। तद॑तप्यत। तस्मा॑त्तेपा॒नाद्धू॒मो॑ऽजायत। तद्भूयो॑ऽतप्यत। तस्मा॑त्तेपा॒नाद॒ग्निर॑जायत। तद्भूयो॑ऽतप्यत। तस्मा॑त्तेपा॒नाज्ज्योतिरजायत। तद्भूयो॑ऽतप्यत। तस्मा॑त्तेपा॒नाद॒र्चिर॑जायत। तद्भूयो॑ऽतप्यत। तस्मा॑त्तेपा॒नान्मरी॑चयोऽजायन्त। तद्भूयो॑ऽतप्यत। तस्मा॑त्तेपा॒नादु॑दा॒रा अ॑जायन्त। तद्भूयो॑ऽतप्यत। तद॒भ्रमि॑व॒ सम॑हन्यत। तद्व॒स्तिमभिनत्। स स॑मु॒द्रो॑ऽभवत्। - - - तद्दश॑हो॒ताऽन्व॑सृज्यत। प्र॒जाप॑ति॒र्वै दश॑होता। य ए॒वं तप॑सो वी॒र्यं वि॒द्वाँस्तप्यते। भवत्ये॒व। - तै.ब्रा. २.२.९.१
*प्रयाजयाज्या आप्रियः – समि॑द्धो अ॒ग्निर॑श्विना। त॒प्तो घ॒र्मो वि॒राट्सु॒तः। दु॒हे धे॒नुः सर॑स्वती। सोमँ॑ शु॒क्रमि॒हेन्द्रि॒यम्। - तै.ब्रा. २.६.१२.१
*अ॒हं मे॒घः स्त॒नय॒न्वर्ष॑न्नस्मि। माम॑दन्त्य॒हम॑द्म्य॒न्यान्। अहँ॒ सद॒मृतो॑ भवामि। मदा॑दि॒त्या अधि॒ सर्वे॑ तपन्ति। - तै.ब्रा. २.८.८.४
*नक्षत्रेष्टि – नक्ष॑त्राय॒ स्वाहो॑देष्य॒ते स्वाहा॑। उ॒द्य॒ते स्वाहोदि॑ताय॒ स्वाहा॑। हर॑से॒ स्वाहा॒ भर॑से॒ स्वाहा। भ्राज॑से॒ स्वाहा॒ तेज॑से॒ स्वाहा॒॑। तप॑से॒ स्वाहा॑ ब्रह्मवर्च॒साय॒ स्वाहेति॑। - तै.ब्रा. ३.१.६.४
*दर्शपूर्णमासेष्टिः – चितः॒ स्थेत्या॑ह। य॒था॒ य॒जुरे॒वैतत्। भृगू॑णा॒मङ्गि॑रसां॒ तप॑सा तप्यध्व॒मित्या॑ह। दे॒वता॑नामे॒वैना॑नि॒ तप॑सा तपति। तानि॒ ततः॒ सँस्थि॑ते। यानि॑ घ॒र्मे क॒पाला॑न्युपचि॒न्वन्ति॑। - - तै.ब्रा. ३.२.७.६
*मनुष्यपशूनां विधिः – ब्रह्म॑णे ब्राह्म॒णमालभते। क्ष॒त्त्राय राज॒न्यम्। म॒रुद्भ्यो॒ वैश्यम्। तपसे शू॒द्रम्। तमसे॒ तस्करम्। नारकाय वीर॒हणम्। पा॒प्मने क्ली॒बम्।- - - तै.ब्रा. ३.४.१.१
*आग्नीध्रेणाभिगृह्यमाणस्योत्करस्यानुमन्त्रणे मन्त्रम् – इ॒दं तस्मै॑ ह॒र्म्यं क॑रोमि। यो वो॑ देवा॒श्चर॑ति ब्रह्म॒चर्य॑म्। मे॒धा॒वी दि॒क्षु मन॑सा तप॒स्वी। अ॒न्तर्दू॒तश्च॑रति॒ मानु॑षीषु। - तै.ब्रा. ३.७.६.३
*दी॒क्षाऽसि॒ तप॑सो॒ योनिः॑। तपो॑ऽसि॒ ब्रह्म॑णो॒ योनिः॑। ब्रह्मा॑सि क्ष॒त्त्रस्य॒ योनिः॑। क्ष॒त्त्रम॑स्यृ॒तस्य॒ योनिः॑। ऋ॒तम॑सि॒ भूरार॑भे श्रद्धां मन॑सा। दी॒क्षां तप॑सा। - तै.ब्रा. ३.७.७.१
*यमिन्द्र॑मा॒हुर्वरु॑णं॒ यमा॒हुः। यं मि॒त्रमा॒हुर्यमु॑ स॒त्यमा॒हुः। यो दे॒वानां॑ दे॒वत॑मस्तपो॒जाः। तस्मै॑ त्वा॒ तेभ्य॑स्त्वा। - तै.ब्रा. ३.७.९.४
*शम॒ग्निर॒ग्निभि॑स्करत्। शं न॑स्तपतु॒ सूर्यः॑। सं वातो॑ वात्वर॒पाः। अप॒ स्रिधः॑। - तै.ब्रा. ३.७.१०.५
*अश्वमेधे प्रथममहः – प्र॒जाप॑तिरकामयताश्वमे॒धेन॑ यजे॒येति॑। स तपोऽतप्यत। तस्य॑ तेपा॒नस्य॑। स॒प्ताऽऽत्मनो॑ दे॒वता॒ उद॑क्रामन्। सा दी॒क्षाऽभ॑वत्। स ए॒तानि॑ वैश्वदे॒वान्य॑पश्यत्। तान्य॑जुहोत्। तैर्वै स दी॒क्षामवा॑रुन्ध। - - - -स॒प्त वै शी॑र्ष॒ण्याः॑ प्रा॒णाः। प्रा॒णा दी॒क्षा। प्रा॒णैरे॒व प्रा॒णां दी॒क्षामव॑रुन्धे। - तै.ब्रा. ३.८.१०.१
*सावित्रचयनम्। अह्नां पञ्चदश मुहूर्तानुपदधाति – स॒वि॒ता प्र॑सवि॒ता दी॒प्तो दी॒पय॒न्दीप्य॑मानः। ज्वल॑ञ्ज्वलि॒ता तप॑न्वि॒तप॑न्त्सं॒तप॑न्। रो॒च॒नो रोच॑मानः शु॒म्भूः शुम्भ॑मानो वा॒मः। - तै.ब्रा. ३.१०.१.२
*सावित्रचयनम् – सर्वेषां॒ ज्योति॑षां॒ ज्योति॒र्यद॒दावु॒देति॑। तप॑सो जा॒तमनि॑भृष्ट॒मोजः॑। तत्ते॒ ज्योति॑रिष्टके। तेन॑ मे तप। तेन॑ मे ज्वल। तेन॑ मे दीदिहि। - तै.ब्रा. ३.१०.३.१
*सावित्रचयनम् – वेत्थ॑ सावि॒त्रा ३ न्न वे॒त्था ३ इति॑। स होवाच॒ वेदेति॑। स कस्मि॒न्प्रति॑ष्ठित॒ इति॑। प॒रोर॑ज॒सीति। कस्तद्यत्प॒रोर॑जा॒ इति॑। ए॒ष वाव स प॒रोर॑जा॒ इति॑ होवाच। य ए॒ष तप॑ति। ए॒षो॑ऽर्वाग्र॑जा॒ इति॑। स कस्मि॑न्त्वे॒ष इति॑। स॒त्य इति॑। किं तत्स॒त्यमिति॑। तप॒ इति॑। कस्मि॒न्नु तप॒ इति॑। बल॒ इति॑। किं तद्बल॒मिति॑। प्रा॒ण इति॑। मा स्म॑ प्रा॒णमति॑पृच्छ्र इति॑- तै.ब्रा. ३.१०.९.४
*ए॒ष वाव स सा॑वि॒त्रः। य ए॒ष तप॑ति। - तै.ब्रा. ३.१०.९.१५
*नाचिकेताग्निचयनम् -- तेजो॑ऽसि॒ तप॑सि श्रि॒तम्। स॒मुद्रस्य॑ प्रति॒ष्ठा। त्वयी॒दम॒न्तः। विश्वं॑ य॒क्षं विश्वं॑ भू॒तं विश्वँ॑ सुभू॒तम्। - - - तै.ब्रा. ३.११.१.३
*अपाद्याख्यानामिष्टयः – तं तपोऽब्रवीत्। प्रजा॑पते॒ तप॑सा॒ वै श्रा॑म्यसि। अ॒हमु॒ वै तपो॑ऽस्मि। मां नु य॑जस्व। अथ॑ ते स॒त्यं तपो॑ भविष्यति। अनु॑ स्व॒र्गं लो॒कं वे॒त्स्यसीति॑। स ए॒तमा॑ग्ने॒यम॒ष्टाक॑पालं॒ निर॑वपत्। तप॑से च॒रुम्। अनु॑मत्यै च॒रुम्। ततो॒ वै तस्य॑ स॒त्यं तपो॑ऽभवत्। अनु॑ स्व॒र्गं लो॒कम॑विन्दत्। - तै.ब्रा. ३.१२.४.२
*वैश्वसृजाग्निचयनम् – येन॒ सूर्य॒स्तप॑ति॒ तेज॑से॒द्धः। पि॒ता पु॒त्रेण॑ पितृ॒मान्योनि॑योनौ। नावे॑दविन्मनुते॒ तं बृ॒हन्त॑म्। स॒र्वा॒नु॒भूमा॒त्मानँ॑ संपरा॒ये। - तै.ब्रा. ३.१२.९.७
*योऽसौ॑ त॒पन्नु॒देति॑। स सर्वे॑षां भू॒तानां॑ प्रा॒णाना॒दायो॒देति॑। मा मे॑ प्र॒जाया॒ मा प॑शू॒नाम्। मा मम॑ प्रा॒णाना॒दायोद॑गाः। - तै.आ. १.१४.१
*अ॒सौ वै तप॑न्न॒पामा॒यत॑नम्। आ॒यत॑नवान्भवति। यो॑ऽमुष्य॒ तप॑त आ॒यत॑नं॒ वेद॑। आ॒यत॑नवान्भवति। आपो॒ वा अ॒मुष्य॒ तप॑त आ॒यत॑नम्। - तै.आ. १.२२.३
*आरुणकेतुकाग्निः – स तपो॑ऽतप्यत। स तप॑स्त॒प्त्वा। शरी॑रमधूनुत। तस्य॒ यन्माँ॒समासी॑त्। ततो॑ऽरु॒णाः के॒तवो॒ वात॑रश॒ना ऋष॑य॒ उदतिष्ठन्। ये नखाः॑। ते वै॑खान॒साः। ये वालाः॑। ते वा॑लखि॒ल्याः। यो रसः॑। सो॑ऽपाम्। अ॒न्त॒रतः कू॒र्मं भू॒तँ सर्प॑न्तम्। तम॑ब्रवीत्। मम॒ वै त्वङ्माँ॒सा। सम॑भूत्। नेत्य॑ब्रवीत्। पूर्व॑मे॒वाहमि॒हाऽऽस॒मिति॑। तत्पुरु॑षस्य पुरुष॒त्वम्। स स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः। सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात्। - - -तै.आ. १.२३.१
*आरुणकेतुकाग्निचयनम् -- अरण्ये॑ऽधीयी॒त। तपस्वी पुण्यो भवति तपस्वी पुण्यो भ॒वति। - तै.आ. १.३२.३
*सन्ध्योपासनाविधानं – रक्षाँ॑सि॒ हवा॑ पुरोनुवा॒के तपोग्र॑मतिष्ठन्त॒ तान्प्र॒जाप॑तिर्व॒रेणो॒पाम॑न्त्रयत॒ तानि॒ वर॑मवृणीताऽऽदि॒त्यो नो॒ योद्धा॒ इति॒ तान्प्र॒जाप॑तिरब्रवी॒द्योध॑य॒ध्वमिति॒ तस्मा॒दुत्ति॑ष्ठन्तँ॒ हवा॒ तानि॒ रक्षाँ॑स्यादि॒त्यं योध॑यन्ति॒ - - तै.आ. २.२.१
*स्वाध्याय ब्राह्मणम् -- अ॒जान्ह॒ वै पृश्नीँ॑स्तप॒स्यमा॑ना॒न्ब्रह्म॑ स्वयं॒भ्व॑भ्यान॑र्ष॒त्त ऋष॑योऽभव॒न्तदृषी॑णामृषि॒त्वं - - यदृ॒चोऽध्यगी॑षत॒ ताः पय॑आहुतयो दे॒वाना॑मभव॒न्यद्यजूँ॑षि घृ॒ताहु॑तयो॒ यत्सामा॑नि॒ सोमा॑हुतयो॒ यदथ॑र्वाङ्गि॒रसो॒ मध्वा॑हुतयो॒ यद्ब्रा॑ह्म॒णानी॑तिहा॒सान्पु॑रा॒णानि॒ कल्पा॒न्गाथा॑ नाराशँ॒सीर्मे॑दाहु॒तयो॑ दे॒वाना॑मभव॒न्ताभिः॒ क्षुधं॑ पा॒प्मान॒मपा॑घ्न॒न् – तै.आ. २.९.१
*उ॒तार॑ण्ये॒ऽबल॑ उ॒त वा॒चोत तिष्ठ॑न्नु॒त व्रज॑न्नु॒ताऽऽसी॑न उ॒त शया॑नो॒ऽधीयी॑तै॒व स्वा॑ध्या॒यं तप॑स्वी॒ पुण्यो॑ भवति॒ – तै.आ. २.१२.१
*तस्य॒ वा ए॒तस्य॑ य॒ज्ञस्य॒ मेघो॑ हवि॒र्धानं॑ वि॒द्युद॒ग्निर्व॒र्षँ ह॒विस्त॑नयि॒त्नुर्व॑षट्का॒रो यद॑व॒स्फूर्ज॑ति॒ सोऽनु॑वषट्का॒रो वा॒युरा॒त्माऽमा॑वा॒स्या॑ स्विष्ट॒कृत्। य ए॒वं वि॒द्वान्मे॒घे व॒र्षति॑ वि॒द्योत॑माने स्त॒नत्य॑व॒स्फूर्ज॑ति पव॑माने वा॒याव॑मावा॒स्यायाँ स्वाध्या॒यमधी॑ते॒ तप॑ ए॒व तत्त॑प्यते॒ तपो॑ हि स्वाध्या॒य इति। - तै.आ. २.१४.१
*षड्ढोतृमन्त्रः – वाग्घोता॑। दी॒क्षा पत्नी॑। वातो॑ऽध्व॒र्युः। आपो॑ऽभिग॒रः । मनो॑ ह॒विः। तप॑सि जुहोमि। - तै.आ. ३.६.१
*षड्होतृहृदयमन्त्राः – इन्द्रँ॒ राजा॑नँ सवि॒तार॑मे॒तम्। वा॒योरा॒त्मानं॑ क॒वयो॒ निचि॑क्युः। र॒श्मिँ र॑श्मी॒नां मध्ये॒ तप॑न्तम्। ऋ॒तस्य॑ प॒दे क॒वयो॒ निपा॑न्ति। - तै.आ. ३.११.४
*सप्तहोतृहृदयमन्त्राः – भ॒द्रं पश्य॑न्त॒ उप॑सेदु॒रग्रे॑। तपो॑ दी॒क्षामृष॑यः सुव॒र्विदः॑। ततः॑ क्ष॒त्त्रं बल॒मोज॑श्च जा॒तम्। तद॒स्मै दे॒वा अ॒भिसंन॑मन्तु। - तै.आ. ३.११.९
*स्रुवाहुतिमन्त्राः -- - - - तप्य॒त्वै स्वाहा॒ तप॑ते॒ स्वाहा॑ - -- - -तै.आ. ३.२०.१
*शान्तिपाठार्थ मन्त्राः – भू॒तं व॑दिष्ये॒ भुव॑नं वदिष्ये॒ तेजो॑ वदिष्ये॒ यशो॑ वदिष्ये॒ तपो॑ वदिष्ये॒ ब्रह्म॑ वदिष्ये स॒त्यं व॑दिष्ये॒ – तै.आ. ४.१.१
*अर्चिषे त्वा। शोचिषे त्वा। ज्योतिषे त्वा। तपसे त्वा(इति गार्हपत्ये मुञ्जानादीप्य महावीरं उपोषति) – तै.आ. ४.३.१
*अ॒ञ्जन्ति॒ यं प्र॒थय॑न्तो॒ न विप्राः॑। व॒पाव॑न्तं॒ नाग्निना॒ तप॑न्तः। पि॒तुर्न पु॒त्र उप॑सि॒ प्रेष्ठः॑। आघ॒र्मो अ॒ग्निमृ॒तय॑न्नसादीत्।(इति स्रुवेण महावीरमन्क्त्यभिपूरयति च) – तै.आ. ४.५.२
*तपो॒ ष्व॑ग्ने॒ अन्त॑राँ अ॒मित्रा॑न्। तपा॒ शँस॑मर॒रुषः॒ पर॑स्य। तपा॑ वसो चिकिता॒नो अचित्ता॑न्। वि ते॑ तिष्ठन्ताम॒जरा॑ अ॒यासः॑ (इति गार्हपत्यादुदीचोऽङगारान्निरुह्ये) – तै.आ. ४.५.५
*दिवं तपसस्त्रायस्व(इति महावीरस्योपरि सौवर्णेन रुक्मेणापिधाय) – तै.आ. ४.५.६
*महावीरस्यावेक्षणे वर्षर्तुरूपेण स्तावकं मन्त्रम् – ध॒र्ता दि॒वो विभा॑सि॒ रज॑सः। पृ॒थि॒व्या ध॒र्ता। उ॒रोर॒न्तरि॑क्षस्य ध॒र्ता। ध॒र्ता दे॒वो दे॒वाना॑म्। अम॑र्त्यस्तपो॒जाः। - तै.आ. ४.७.२
*महावीरस्यावेक्षणे हेमन्तर्तुरूपेण स्तावकं मन्त्रम् – विश्वा॑सां भुवां पते। विश्वस्य भुवनस्पते। विश्वस्य मनसस्पते। विश्वस्य वचसस्पते। विश्वस्य तपसस्पते। विश्वस्य ब्रह्मणस्पते। - तै.आ. ४.७.३
*सूर्यस्य॒ तप॑स्तप (इति ऊष्माणम् उद्यन्तमनुमन्त्रयत) – तै.आ. ४.८.४, ५.७.७
*शं नो॒ वातः॑ पवतां मात॒रिश्वा॒ शं न॑स्तपतु॒ सूर्यः॑। अहा॑नि॒ शं भ॑वन्तु नः॒ शँ रात्रिः॒ प्रति॑धीयताम्(एवं सायं प्रातः प्रवर्ग्योपसद्भ्यां चरन्ति) - तै.आ. ४.४२.१
*पृ॒थि॒वीं तप॑सस्त्राय॒स्वेति॒ हिर॑ण्य॒मुपा॑स्यति। अ॒स्या अन॑तिदाहाय – तै.आ. ५.४.५
*दिवं॒ तप॑सस्त्राय॒स्वेत्यु॒परि॑ष्टा॒द्धिर॑ण्य॒मधि॒ निद॑धाति। अ॒मुष्या॒ अन॑तिदाहाय। - तै.आ. ५.४.१०
*त॒पो॒जां वाच॑म॒स्मे निय॑च्छ देवा॒युव॒मित्या॑ह। या वै मेध्या॒ वाक्। सा त॑पो॒जाः। तामेवाव॑रुन्धे। - तै.आ. ५.६.७
*यत्पु॒रस्ता॑दुप॒सदां॑ प्रवृ॒ज्यते॑। तस्मा॑दि॒तः परा॑ङ॒मूँल्लो॒काँस्तप॑न्नेति। यदु॒परि॑ष्टादुप॒सदां॑ प्रवृ॒ज्यते॑। तस्मा॑द॒मुतो॒ऽर्वाङि॒माँल्लो॒काँस्तप॑न्नेति। - तै.आ. ५.१२.३
*पितृमेधः -- अ॒जोऽभा॒गस्तप॑सा॒ तं त॑पस्व॒ तं ते॑ शो॒चिस्त॑पतु॒ तं ते॑ अ॒र्चिः। यास्ते॑ शि॒वास्त॒नुवो॑ जातवेद॒स्ताभि॑र्वहे॒मँ सु॒कृतां॒ यत्र॑ लो॒काः ( इति अजं चित्यन्तेऽबलेन शुल्बेन बध्नाति) – तै.आ. ६.१.४
*पितृमेधः – यस्त॑ इ॒ध्मं ज॒भर॑त्सिष्विदा॒नो मू॒र्धानं॑ वा त॒तप॑ते त्वा॒या। दिवो॒ विश्व॑स्मात्सीमघाय॒त उ॑रुष्यः – तै.आ. ६.२.१
*नित्यकर्मणामुपासनं -- ऋतं च स्वाध्यायप्रव॑चने॒ च। सत्यं च स्वाध्यायप्रव॑चने॒ च। तपश्च स्वाध्यायप्रव॑चने॒ च। दमश्च स्वाध्यायप्रव॑चने॒ च। - - - तै.आ. ७.९.१
*सो॑ऽकामयत। ब॒हु स्यां॒ प्रजा॑ये॒येति॑। स तपो॑ऽतप्यत। स तप॑स्त॒प्त्वा। इ॒दँ सर्व॑मसृजत। यदि॒दं किंच॑। तत्सृ॒ष्ट्वा। तदे॒वानु॒प्रावि॑शत्। - तै.आ. ८.६.१
*जले निमग्नस्य प्राणायामार्थमघमर्षणसूक्तम् – ऋ॒तं च॑ स॒त्यं चा॒भी॑द्धा॒त्तप॒सोऽध्य॑जायत। ततो॒ रात्रि॑रजायत॒ ततः॑ समु॒द्रो अ॑र्ण॒वः। स॒मु॒द्राद॑र्ण॒वादधि॑ संवत्स॒रो अ॑जायत। - - - तै.आ. १०.१.१३
*स॒त्यं परं॒ परँ॑ स॒त्यं - - - । तप॒ इति॒ तपो॒ नानश॑ना॒त्परं॒ यद्धि परं॒ तप॒स्तद्दुर्धर्षं॒ तद्दुरा॑धर्षं॒ तस्मा॒त्तप॑सि रमन्ते॒। - तै.आ. १०.६२.१
*आरुणि – प्रजापति संवाद -- तप॑सा दे॒वा दे॒वता॒मग्र॑ आय॒न्तप॒सर्ष॑यः॒ सुव॒रन्व॑विन्द॒न्तप॑सा स॒पत्ना॒न्प्रणु॑दा॒मारा॑ती॒स्तप॑सि स॒र्वं प्रति॑ष्ठितं॒ तस्मा॒त्तपः॑ पर॒मं वद॑न्ति॒। - तै.आ. १०.६३.१
*गायत्र्यावाहनादूर्ध्वं प्राणायामार्थं मन्त्रम् – ओं भूः। ओं भुवः। ओँ सुवः। ओं महः। ओं जनः। ॐतपः। ओं स॒त्यम्। - - - तै.आ.आ. ३५
*प्रजापतिस्तपोऽतप्यत। तस्य ह वै तप्यमानस्य मनः प्राजायत देवान् सृजेयमिति। त इमे देवा असृज्यन्त। दिवि देवानसृजत। नक्तमसुरान्। - - - देवा वै स्वर्गकामास्तपोऽतप्यन्त। तेषां तप्यमानानां रसोऽजायत। पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौरिति। तेऽभ्यतपन्। तेषां तप्यमानानां रसोऽजायत। ऋग्वेदः पृथिव्या यजुर्वेदोऽन्तरिक्षात् सामवेदोऽमुष्मात्। तेऽभ्यतपन्। तेषां तप्यमानानां पुरुषोऽजायत। सहस्रशीर्षः सहस्राक्षः सहस्रपात्। - षड्विंश ब्राह्मण ४.१.१/५.१.१
*तदु भारद्वाजं(पिबा सोमम् इति, ऋ. ६.१७.१) भरद्वाजो ह वा ऋषीणामनूचानतमो दीर्घजीवितमस्तपस्वितम आस स एतेन सूक्तेन पाप्मानमपाहत तद्यद्भारद्वाजं शंसति पापमनोऽपहत्या अनूचानो दीर्घजीवी तपस्व्यसानीति - ऐ.आ. १.२.२
*प्रेङ्खारोहणे कंचित्पूर्वपक्षमुपन्यस्य दूषयति – पुरस्तात्प्रत्यञ्चं प्रेङ्खमधिरोहेदित्याहुरेतस्य रूपेण य एष तपति पुरस्ताद्ध्येष इमाँल्लोकान्प्रत्यङ्ङधिरोहतीति तत्तन्नाऽऽदृत्यम्। - ऐतरेय आरण्यक १.२.४
*एष इमं लोकमभ्यार्चत्पुरुषरूपेण य एष तपति प्राणो वाव तदभ्यार्चत्प्राणो ह्येष य एष तपति तं शतं वर्षाण्यभ्यार्चत् – ऐ.आ. २.२.१
*- - - प्राणः सर्वाणि भूतानि प्राणो ह्येष य एष तपति स एतेन रूपेण सर्वा दिशो विष्टोऽस्मि तस्य मेऽन्नं मित्रं दक्षिणं तद्वैश्वामित्रमेष तपन्नेवास्मीति होवाच – ऐ.आ. २.२.३
*तस्याप्सु पवमानामदधुर्वायौ पावकामादित्ये शुचिमथ यैवाऽस्य शिवा शग्म्या यज्ञिया तनूरासीत्तयेह मनुष्येभ्योऽतपत् – शां.ब्रा. १.१
*घर्मो वा एष प्रवृज्यते यदग्निहोत्रं तदसौ वै घर्मो योऽसौ तपत्येतमेव तत्प्रीणाति स वै सायं च प्रातश्च जुहोत्यग्नये सायं सूर्याय प्रातः – शांखायन ब्राह्मण २.१
*यथा ह वै श्रद्धा देवस्य सत्यवादिनस्तपस्विनो हुतं भवत्येवं हैवास्य हुतं भवति य एवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति – शां.ब्रा. २.८
*प्रयाजाः – तनूनपातं यजति ग्रीष्ममेव ग्रीष्मो हि तन्वं तपति – शां.ब्रा. ३.४
*वैश्वानरीयं द्वादशकपालमसौ वै वैश्वानरो योऽसौ तपत्येष एवैनं पुनर्यज्ञपथमपि पाथयति – शां.ब्रा. ४.३
*चातुर्मास्य – अथ यत्पूषणं यजत्यसौ वै पूषा योऽसौ तपति – शां.ब्रा. ५.२
*चातुर्मास्य साकमेध – अथ यद्वैश्वकर्मण एककपालोऽसौ वै विश्वकर्मा योऽसौ तपति – शां.ब्रा. ५.५
*चातुर्मास्य शुनासीर – अथ यत्सौर्यंएककपालोऽसौ वै सूर्यो योऽसौ तपति – शां.ब्रा. ५.८
*प्रजापतिः प्रजातिकामस्तपोऽतप्यत तस्मात्तप्तात्पञ्चाजायन्ताग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्रमा उषाः पञ्चमी तानब्रवीद्यूयमपि तप्यध्वमिति तेऽदीक्षन्त तान्दीक्षितांसेतेपानानुषाः प्राजापत्याप्सरोरूपं कृत्वा पुरस्तात्प्रत्युदैत् – शां.ब्रा. ६.१
*प्रजापतिस्तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा प्राणादेवेमं लोकं प्रावृहदपानादन्तरिक्षलोकं व्यानादमुं लोकं स एतांस्त्रीँल्लोकानभ्यतप्यत सोऽग्निमेवास्माल्लोकादसृजत वायुमन्तरिक्षलोकादादित्यं दिवः स एतानि त्रीणि ज्योतींष्यभ्यतप्यत सोऽग्नेरेवर्चोऽसृजत वायोर्यजूंष्यादित्यात्सामानि स एतां त्रयीं विद्यामभ्यतप्यत स यज्ञमतनुत स ऋचैवाशंसद्यजुषा प्रातरत्साम्नोदगायदथैतस्या एव त्रय्यै विद्यायै तेजोरसं प्राबृहदेतेषामेव वेदानां भिषज्यायै - - -शां.ब्रा. ६.१०
*एतमेवाऽऽत्मानं दीक्षमाणोऽभिदीक्षते य एष तपति तस्मादपराह्णे दीक्षते – शां.ब्रा. ७.४
*प्रायणीय – अथाब्रवीत्सविता मह्यमेकामाज्याहुतिं जुहुताहमेकां दिशं प्रज्ञास्यामीति तस्मा अजुहवुः स प्रतीचीं दिशं प्राजानात्तदसौ वै सविता योऽसौ तपति – शां.ब्रा. ७.६
*ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तादित्यदो वै ब्रह्मजज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्यत्रासौ तपति – शां.ब्रा. ८.४
*अथो अवाप्यते वै तृतीयेनाह्ना वाक्तामेवैतच्चतुर्थेऽहन्विभावयति यथायस्तप्तं विनयेदेवं तद्वाचो विभूत्यै - - - शां.ब्रा. २२.६
*आपस्तपोऽतप्यन्त तास्तपस्तप्त्वा गरभमदधत तत एष आदित्योऽजायत षष्ठे मासि तस्मात्सत्रिणः षष्ठे मासि दिवाकीर्त्यमुपयन्ति – शां.ब्रा. २५.१
प्रथम लेखन- १२-९-२०११ ई.(भाद्रपद पूर्णिमा, विक्रम संवत् २०६८)
भगवद्गीतायाः १०.३१ कथनमस्ति - झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी । (तु. झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ।।- भीष्मपर्व ३४.३० )। स्कन्दपुराणे ३.१.४९.४२ कथनमस्ति - व्याधिनक्रसमुद्विग्नं तापत्रयझषार्तिदम् ।। मां रक्ष गिरिजानाथ रामनाथ नमोऽस्तु ते ।। अत्र तापत्रयः झषाः सन्ति एवं व्याधिः नक्र अथवा मकररूपा अस्ति। लोके झषशब्दस्य प्रसिद्धिः झख मारणे, अनावश्यक अनर्गल तर्क-वितर्करूपे अस्ति। यः तापत्रयः अस्ति, तस्य चिकित्सा, अपनयनोपायः तपः अस्ति, एवं कथितुं शक्यन्ते। तपसा यः तापत्रयः अस्ति, तस्य रूपान्तरणं अग्नित्रय – गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि एवं आहवनीय रूपे भविष्यति। भगवद्गीतायाः कथने मकरस्य कः योगदानमस्ति। भागवतपुराणे १२.११.१२ कथनमस्ति - बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले। अतएव, यदा झषः, अनर्गल तर्कवितर्कः योगस्य एवं साङ्ख्यस्य साहाय्यं प्राप्स्यसि, तदा अस्य रूपान्तरणं संभवमस्ति। शान्तिपर्व ३००.१६ अनुसारेण - बलहीनाश्च कौन्तेय यथा जालं गता झषाः। अन्तं गच्छन्ति राजेन्द्र योगास्तद्वत्सुदुर्बलाः।। झषाणां बन्धनाय जालः कः अस्ति, अयं विचारणीयः। लक्ष्मीनारायणसंहिता ३.१७५.४ अनुसारेण - इन्द्रियझषसंजीवं तरंगान्तर्विलोलितम् ।।
भूतनौकाकृतमार्गं विषयाऽऽशानुसन्धितम् । शान्तिपर्वानुसारेण यदा बन्धनात्मकः जालः विद्यमानः भवति, तदा योगाः अपि तारणे दुर्बलाः भवन्ति। शान्तिपर्व १३७.१७ मध्ये अनागतविधाता, दीर्घदर्शी, दीर्घसूत्री आदीनां झषाणां आख्यानमस्ति यत्र अनागतविधाता एवं दीर्घदर्शी भविष्यत्कालीनस्य आपदाविषये विवेकस्य आश्रयं गृह्णन्ति, किन्तु दीर्घसूत्री दैवोपरि आश्रितः भवति एवं अन्तकाले धीवराणां जाले नश्यति। एते उदाहरणाः सन्ति यत्र अनर्गलतर्कवितर्कस्य अपनयनाय ज्ञानयोगस्य, कर्मयोगस्य आवश्यकता भवति। पञ्चतन्त्रे २.३५ उल्लेखमस्ति यत् मकरः छन्दःशास्त्रप्रवर्तकस्य पिङ्गलस्य व्यापादनं करोति। मकार/ओंकार उपरि टिप्पणी द्रष्टव्यः अस्ति।
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