Puraanic contexts of words like Tatpurusha, Tanu / body, Tantra / system, Tanmaatraa, Tapa / penance etc. are given here.
तत्पुरुष अग्नि ३०४.२५(तत्पुरुष शिव का स्वरूप : श्वेत), गरुड १.२१.५(तत्पुरुष शिव की कलाओं के नाम), नारद १.९१.६७(तत्पुरुष शिव की ४ कलाओं का कथन), लिङ्ग २.१४.७(शिव नाम, प्रकृति का रूप), २.१४.१२(त्वगिन्द्रियात्मक), २.१४.१७(पाणीन्द्रियात्मक), २.१४.२२(स्पर्श तन्मात्रात्मक, समीर जनक), शिव ३.१.१९(शिव के पांच अवतारों में से एक तत्पुरुष का पीतवासा नामक २१वें कल्प में अवतरण, अधिष्ठान तथा स्वामित्व का वर्णन), ६.३.२८(तत्पुरुष शिव की चार कलाओं की प्रणव बिन्दु में स्थिति), ६.६.७० (तत्पुरुष शिव के चार मुखों में चार कलाओं का न्यास), ६.११.१७ (पञ्चवक्त्र शिव के संदर्भ में ईशान मुकुट, तत्पुरुष मुख, अघोर हृदय, वामदेव गुह्य व सद्योजात पाद होने का उल्लेख), ६.१४.४१(तत्पुरुष शिव में प्रकृति, त्वक्, पाणि, स्पर्श व वायु की स्थिति), ६.१६.५९(तत्पुरुष शिव से शान्ति कला की उत्पत्ति), ७.१.३३.४१(तत्पुरुष शिव हेतु हरिताल व गुग्गुल देने का निर्देश), ७.२.३.७(तत्पुरुष शिव की मूर्ति में गुणाश्रयात्मक अव्यक्त की स्थिति), स्कन्द ३.३.१२.९(शिव कवच के अन्तर्गत तत्पुरुष से प्राची दिशा में रक्षा की प्रार्थना ) । tatpurusha
तथोक्ति मार्कण्डेय ५१.३/४८.३(दुःसह व निर्मार्ष्टि की १६ सन्तानों में से एक ) ।
तथ्य मत्स्य ४७.२४३(तथ्य ऋषि के काल के पश्चात् मान्धाता रूप में विष्णु के अवतार का उल्लेख), वायु ९८.९०/२.३६.८९(तथ्य ऋषि के काल के पश्चात् मान्धाता रूप में विष्णु के अवतार का उल्लेख ) । tathya
तनय वायु ४३.२१(तनय/तनपा : भद्र देश के जनपदों में से एक ) ।
तनु ब्रह्माण्ड १.२.८.२१(ब्रह्मा के त्यक्त तनुओं से सन्ध्या, ज्योत्स्ना आदि की उत्पत्ति का कथन), भागवत ६.४.४६(तनु के विद्या होने का उल्लेख), वायु १.७.५१/७.५६(अम्भ: की तनव: संज्ञा के कारण का कथन), विष्णुधर्मोत्तर १.१०७(ब्रह्मा द्वारा सृष्टि उपरान्त तनु त्याग), शिव २.१.८(शब्दब्रह्म तनु नामक अध्याय के अन्तर्गत वर्णमाला के अक्षरों का शरीर के अङ्गों से साम्य), स्कन्द १.२.१३.१८९(शतरुद्रिय प्रसंग में पृथिवी द्वारा मेरु लिङ्ग की द्वितनु नाम से अर्चना का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण २.२१०.५४(तनु ऋषि द्वारा ऋषभ को शान्ति प्राप्ति हेतु आशा त्याग का उपदेश), ३.१४१.६४(तनु नामक ऋषि का बदरिका वन में निवास, लोमश के पूछने पर तनु द्वारा बदरिका के कुंकुमवापिका गमन का कथन ) ; द्र. देह, भद्रतनु, शरीर, सुतनु । tanu
तन्ति मत्स्य ४६.२७(नन्दन के २ पुत्रों में से एक, सोम वंश), २०१.३८(५ धूम्र पराशरों में से एक), वायु ९६.१८९/२.३४.१८९(तन्तिज : वसुदेव द्वारा तन्तिज व तन्तिमाल पुत्रों को कनक? को देने का उल्लेख ), द्र. तति ।tanti
तन्तिपाल मत्स्य ४६.२७(नन्दन के २ पुत्रों में से एक), वायु ९६.१८९/ २.३४.१८९(तन्तिमाल : वसुदेव द्वारा तन्तिज व तन्तिमाल पुत्रों को कनक? को देने का उल्लेख ) । tantipaala
तन्तु गरुड ३.२२.१०(उदर के तन्तु रूप होने का विष्णु का १०वां लक्षण), लक्ष्मीनारायण ४.५९.५२(मूलतन्तुक पत्तन के ऋषि भवायन का वृत्तान्त ), द्र. फेनतन्तुtantu
तन्त्र अग्नि ३९.३(आदित्यशीर्ष तन्त्र, त्रैलोक्यमोहन तन्त्र प्रभृति २५ तन्त्रों का नामोल्लेख, तदनुसार देव - प्रतिष्ठा विधान का वर्णन), २९९(बाल - ग्रहों को शान्त करने वाले बालतन्त्र का वर्णन), नारद १.६३.९(सनत्कुमार द्वारा नारद को चतुष्पाद महाभागवत तन्त्र का वर्णन), १.६३.१२(सनत्कुमार द्वारा चतुष्पाद महाभागवत तन्त्र का वर्णन : पशु, पाश, दीक्षा आदि), ब्रह्माण्ड ३.४.२.१०८ (अपर? ब्रह्म के तान्त्रिक होने का उल्लेख), ३.४.१७.४६(तन्त्रिणी : सङ्गीतयोगिनी की शुक व वीणा लिए २ अनुचरियों में से एक), भविष्य ३.२.१४.११(मूलदेव व सुदेव द्वारा नृप के समक्ष अपने को तान्त्रिक नगर का बताना), भागवत १.३.८(नारद रूपी विष्णु द्वारा सात्वत तन्त्र के उपदेश का उल्लेख), ११.३.४७(हृदय ग्रन्थि विमोचन के लिए वैदिक व तन्त्रोक्त पद्धतियों से उपासना का निर्देश), ११.५.२८(द्वापर में कृष्ण की वेदों व तन्त्रों द्वारा उपासना का कथन), ११.५.३१(कलियुग में कृष्ण की नाना तन्त्र विधान से अर्चना का कथन), ११.२७.२६(उभय सिद्धि के लिए वेद व तन्त्र दोनों से परमेश्वर की अर्चना का निर्देश), १२.११.२(विष्णु की तान्त्रिक परिचर्या में विष्णु के अङ्ग उपाङ्ग, आयुधों आदि के प्रतीकार्थों का वर्णन), १२.११.४(वेद व तन्त्रों के आचार्यों द्वारा प्रोक्त वैष्णवी विभूति का वर्णन), १२.११.२९(अविद्या से निर्मित लोकतन्त्र के वर्णन में १२ मासों में सूर्य के रथ का वर्णन), विष्णुधर्मोत्तर १.९२(समस्त अग्नि कर्मों का प्राक् तन्त्र तथा उत्तर तन्त्र का वर्णन), २.१२५(वैदिक तन्त्र विधान), ३.५(निरुक्त आदि), ३.६(युक्तियां - अधिकरण, योग आदि), लक्ष्मीनारायण २.१५७.१५ (तन्त्र का ओष्ठों में न्यास ) । tantra
तन्तुकच्छ कथासरित् ८.२.२२४(प्रह्लाद द्वारा भोज हेतु निमन्त्रित दैत्यराजों में से एक), ८.२.३३९ (सप्तम पाताल के राजा तन्तुकच्छ द्वारा स्वकन्या मनोवती को सूर्यप्रभ को प्रदान करने का उल्लेख ) ।
तन्तुधृक् लक्ष्मीनारायण ४.१०१.११५(कृष्ण - पत्नी मालती का पुत्र ) ।
तन्दुल स्कन्द १.२.४४.७३(तन्दुल द्वारा दिव्यता परीक्षा ) । tandula
तन्द्रा ब्रह्माण्ड ३.४.३५.९६(शंकर की ११ कलाओं में से एक), महाभारत आश्वमेधिक ३१.२(३ तामस गुणों में से एक ) । tandraa
तन्मात्रा अग्नि १७.४(तामस अहंकार से शब्द आदि तन्मात्राओं की क्रमिक सृष्टि), २७.५२(शब्द, स्पर्श आदि तन्मात्राओं के बीज मन्त्र), ५९.१९(पञ्च तन्मात्राओं के बोधक बीजमन्त्रों के न्यास का कथन), ८४+(निवृत्ति आदि कलाओं में गन्ध, रस आदि का प्राधान्य), देवीभागवत ३.७.२८(तामस अहंकार की द्रव्य शक्ति से शब्द, स्पर्शादि तन्मात्राओं का उद्भव), ७.३२.२७(तन्मात्राओं का क्रमश: प्रस्फुटन, परमेश्वरी - हिमालय संवाद), नारद १.४२.८१(शब्द, स्पर्श, रूप आदि के उपविभागों का वर्णन), ब्रह्मवैवर्त्त १.३.५(परम पुरुष के दक्षिण पार्श्व से आविर्भूत तीन गुणों से महत् तत्त्व, अहंकार तथा पञ्च तन्मात्राओं की उत्पत्ति), ब्रह्माण्ड ३.४.३.७(प्रलय के समय तन्मात्राओं के क्रमिक लय का कथन), भविष्य ३.४.१९.५४(शब्द मात्रा में गणेश, स्पर्श मात्रा में यम, रूप मात्रा में कुमार, रसमात्रा में यक्षराज तथा गन्ध मात्रा में विश्वकर्मा की स्थिति), भागवत २.५.२५(तामस अहंकार में विकार से शब्द आदि पञ्च तन्मात्राओं की उत्पत्ति), ३.२६.३२(तामस अहंकार में विकार से शब्द, स्पर्श आदि पञ्च तन्मात्राओं की उत्पत्ति तथा उनके लक्षणों का कथन), ५.७.२(तामस अहंकार से भूत तन्मात्राओं की उत्पत्ति के समान भरत व पञ्चजनी से पांच पुत्रों की उत्पत्ति का उल्लेख), मत्स्य ३.१८ (शब्द आदि तन्मात्राओं की उत्पत्ति का वर्णन), मार्कण्डेय ४५.३९(तामस अहंकार से शब्द स्पर्शादि तन्मात्राओं की सृष्टि), योगवासिष्ठ ३.१२.१३(पञ्च तन्मात्राओं का वर्णन), लिङ्ग १.७०.३०(तामस अहंकार से तन्मात्र सृष्टि का वर्णन), २.१४.२१(शब्दादि पांच तन्मात्राओं में शिव के ईशानादि ५ रूपों का कथन), वराह ३४.२(उत्पत्ति, पितरों का रूप), वायु ४.५०(तामस अहंकार से तन्मात्राओं तथा भूतसृष्टि का वर्णन), विष्णु १.२.३७ (तामस अहंकार से तन्मात्राओं तथा तन्मात्राओं से जगत् की सृष्टि का वर्णन), १.२.४४(तन्मात्रा की निरुक्ति : तस्मिन् तस्मिंस्तु तन्मात्रं), ६.४.१५(प्राकृत प्रलय होने पर गन्ध, रस आदि तन्मात्राओं के क्रमश: क्षय होने का वर्णन), स्कन्द १.२.३७.९(तामस अहंकार से पांच तन्मात्राओं तथा तन्मात्राओं से पञ्चभूतों की उत्पत्ति), महाभारत वन १८१.१६(शब्द, स्पर्श, रूप आदि के अधिष्ठान का प्रश्न), शान्ति १८४.२८(गन्ध के ९, रस के ६, ज्योति रूप के १६ भेदों का कथन आदि), आश्वमेधिक ४१+ (अहंकार व अहंकार से उत्पन्न पञ्च महाभूतों, अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव का वर्णन ) । tanmaatraa/tanmatra
तन्वर्तु लक्ष्मीनारायण २.२१४.२७(एक ऋषि का नाम ) ।
तप अग्नि ३८१.४४(शारीरिक, वाङ्मय, सात्त्विक, राजसिक व तामसिक तपों के लक्षणों का कथन - श्रद्धामन्त्रादिविध्युक्तं तपः शारीरमुच्यते । देवादिपूजाऽहिंसादि वाङ्मयं तप उच्यते ।। ), ३८२.१४(अनशन के परम तप होने का उल्लेख), गणेश २.१४८.१(कायिक, वाचिक, मानसिक तप के लक्षणों का वर्णन - ऋजुतार्जवशौचाश्च ब्रह्मचर्यमहिंसनम् ॥ गुरुविज्ञद्विजातीनां पूजनं चासुरद्विषाम् । स्वधर्मपालनं नित्यं कायिकं तप ईदृशम्॥), गरुड १.१२७.६(विस्मय से तप के नष्ट होने का उल्लेख - हिमं यथोष्णमाहन्यादनर्थं चार्थसंचयः । यथा प्रकीर्तनाद्दानं तपो वै विस्मयाद्यथा ॥), ३.२१.३(तप की परिभाषा : पूर्वार्जित पापों का अनुतापन - तप आलोचनं प्रोक्तं तत्त्वानां च विनिर्णयः । पूर्वार्जितानां पापानामनुतापस्तपः स्मृतम् ॥ ), देवीभागवत ११.२३.४२(सान्तपन व्रत विधि - प्राजापत्यस्य कृच्छ्रस्य तथा सान्तपनस्य च । पराकस्य च कृच्छ्रस्य विधिश्चान्द्रायणस्य च ॥), नारद १.४३.७२(तप की मत्सर से रक्षा का निर्देश - नित्यक्रोधाच्छ्रियं रक्षेत्तपो रक्षेत्तु मत्सरात् ।।), पद्म १.३५.४९(द्वापर में तप के वैश्य में तथा कलियुग में तप के शूद्र योनि में प्रवेश का कथन--तस्मिन्द्वापरसंज्ञे तु तपो वैश्यं समाविशत्।....भविता शूद्रयोन्यां तु तपश्चर्या कलौ युगे।), १.८२.३९(कृतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ व कलियुग में दान का महत्त्व - तपः कृते प्रशंसंति त्रेतायां ज्ञानमेव च॥ द्वापरे यज्ञमित्याहुर्दानमेकं कलौ युगे।), २.१३.६(तप का स्वरूप - आचारेण प्रवर्तेत कामक्रोधविवर्जितः। प्राणिनामुपकाराय संस्थितउद्यमावृतः॥), ६.२७.३२(तप की महिमा - सर्वेषां चैव वर्णानां ब्राह्मणानां तपोबलम्।....), ६.५७.३०(कृतयुग में वृषल द्वारा तप करने से वृष्टि न होने का उल्लेख - अस्मिन्युगे तपोयुक्ता ब्राह्मणा नेतरा जनाः। विषये तव राजेंद्र वृषलोऽयं तपस्यति॥), ब्रह्म २.५६(तप तीर्थ का माहात्म्य : अग्नि व जल में श्रेष्ठत्व के निर्णय की कथा - तस्माज्ज्यैष्ठ्यमपामेव जनन्योऽग्नेर्विशेषतः।।....तपस्तीर्थं तु तत्प्रोक्तं सत्रतीर्थं तदुच्यते।।), २.५८.७६(गौतमी के दक्षिण तट पर तपोवन तीर्थ की स्थिति - भक्ताभीष्टप्रदा नित्यमलंकृत्योभयं तटम्। तपस्तेपे यत्र चाग्निस्तत्तींर्थं तु तपोवनम्।।), ब्रह्मवैवर्त्त २.१.७६(तपस्वियों की प्रिय प्रकृति देवी षष्ठी/ मनसा का कथन - तपःस्वरूपा तपसां फलदात्री तपस्विनी ।। दिव्यं त्रिलक्षवर्षं च तपस्तप्तं यया हरेः ।।), २.१४.४९(वास्तविक सीता की अग्नि से वापसी पर सीता की छाया द्वारा तप करने व द्रौपदी का अवतार लेने का वर्णन - त्वं गच्छ तपसे देवि पुष्करं च सुपुण्यदम् ।। कृत्वा तपस्यां तत्रैव स्वर्गलक्ष्मीर्भविष्यसि ।।), ३.३५.७४(ब्राह्मणों के लिए तप धन, तप कल्पतरु, तपस्या कामधेनु होने का कथन, क्षत्रियों की तप में स्पृहा की अप्रशंसा - तपोधनं ब्राह्मणानां तपः कल्पतरुर्यथा ।। तपस्या कामधेनुश्च सन्ततं तपसि स्पृहा ।।), ब्रह्माण्ड १.२.३२.९८(तप से ऋषिता प्राप्त करने वाले ऋषियों के नाम - काव्यो बृहस्पतिश्चैव कश्यपश्व्यवनस्तथा ।। उतथ्यो वामदेवश्च अपा स्यश्चोशिजस्तथा ।।), ३.४.१.१४(२० सुतपा देव गण में से एक), ३.४.१.१९(२० सुख देवों में से एक), ३.४.१.८५(रोहित गण के १० देवों में से एक), भविष्य ३.४.७.२६(तप से सालोक्य मोक्ष की प्राप्ति - मोक्षश्चतुर्विधो विप्र सालोक्यं तपसोद्भवम् ।। सामीप्यं भक्तितो जातं सारूप्यं ध्यानसंभवम् ।। ), भागवत २.१.२८(विराट् पुरुष के रराट्/ललाट के तपो लोक होने का उल्लेख - उरःस्थलं ज्योतिरनीकमस्य ग्रीवा महर्वदनं वै जनोऽस्य । तपो रराटीं विदुरादिपुंसः सत्यं तु शीर्षाणि सहस्रशीर्ष्णः ॥ ), २.५.३९(स्तनों में तपोलोक की स्थिति का उल्लेख - ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् । मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः ॥), ६.४.४६(तप के भगवान् का हृदय होने का उल्लेख - तपो मे हृदयं ब्रह्मंस्तनुर्विद्या क्रियाकृतिः। अङ्गानि क्रतवो जाता धर्म आत्मासवः सुराः॥), ८.२०.३४(वामन विराट् के द्वितीय पग के तपोलोक से भी परे पहुंचने का उल्लेख - उरुक्रमस्याङ्घ्रिरुपर्युपर्यथो महर्जनाभ्यां तपसः परं गतः ॥ ), ११.१८.४२(वानप्रस्थी के मुख्य धर्म के रूप में तप व ईक्षा/भगवद्भाव का उल्लेख - भिक्षोः धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः ।), ११.१९.३७(तप की परिभाषा : कामनाओं का त्याग - दण्डन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्), १२.११.३९ (तप/माघ मास में पूषा नामक सूर्य के रथ पर स्थित गणों के नाम - पूषा धनञ्जयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा। घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी॥), मत्स्य ४.२५(मनु व शतरूपा के ७ पुत्रों में से एक), ९.१७(तामस मनु के तपोमूल, तपोधन, तपोरति, तपस्य, तपोद्युति, तपोभोगी, तपोयोगी नामक पुत्रों का उल्लेख - अकल्मषस्तथा धन्वी तपोमूलस्तपोधनः। तपोरति तपस्यश्च तपोद्युति परन्तपौ।। ), १४५.४३(तप के लक्षण - ब्रह्मचर्य्यं तपो मौनं निराहारत्वमेव च। इत्येतत् तपसो रूपं सुघोरन्तु दुरासदम्।।), वामन ९०.४०(तपोलोक में विष्णु का असित वाङ्मय नाम - तपोलोकेऽखिलं ब्रह्मन् वाङ्मयं सत्यसंयुतम्।), ९०.४१(निराकार में विष्णु का नाम तपोमय - अप्रतर्क्यं निरालम्बे निराकाशे तपोमयम्।।), वायु १.२.६/२.६ (यज्ञ सत्र में तप के गृहपति होने का उल्लेख - तपो गृहपतिर्यत्र ब्रह्मा ब्रह्माऽभवत् स्वयम्। इलाया यत्र पत्नीत्वं शामित्रं यत्र बुद्धिमान्।), २१.२९/१.२१.२७(तृतीय कल्प का नाम), ३०.९(तप व तपस्य मासों की घोर व शिशिर प्रकृति का उल्लेख - सहश्चैव सहस्यश्च मन्युमन्तौ तु तौ स्मृतौ। तपश्चैव तपस्यश्च घोरावेतौ तु शैशिरौ ।।), ५०.२०२(तप व तपस्य मासों के उत्तरायण में होने का उल्लेख), ५९.४१(तप के लक्षण - ब्रह्मचर्यं जपो मौनं निराहारत्वमेव च। इत्येतत् तपसो मूलं सुघोरं तद्दुरासदम् ।।), ६९.३३६/२.८.३३६(सुरभि के तप:शीला होने का उल्लेख - अदितिर्धर्मशीला तु बलशीला दितिः स्मृता। तपःशीला तु सुरभिर्मायाशीला दनुः स्मृता ॥), ९६.१९०/ २.३४.१९०(वस्तावन के दत्तक पुत्रों में से एक, वसुदेव - पुत्र?), १००.१४/२.३८.१४(२० सुतपा देवों में से एक), १००.१०८/२.३८.१०८(१३वें मन्वन्तर में रौच्य मनु के १० पुत्रों में से एक), १०१.१७/२.३९.१७(७ लोकों के संदर्भ में ६ठे तपो लोक का उल्लेख - स्वस्तृतीयस्तु विज्ञेयश्चतुर्थो वै महः स्मृतः। जनस्तु पञ्चमो लोकस्तपः षष्ठो विभाव्यते ।।), १०१.३७/२.३९.३८(योग, तप व सत्य के धारण से पुनर्जन्म से रहित सत्य लोक की प्राप्ति का उल्लेख - योगं तपश्च सत्यञ्च समाधाय तदात्मनि। षष्ठे काले निवर्त्तन्ते तत्तदाह विपर्यये ।।), १०१.१७८/ २.३९.१७८(भूमि के नीचे ७ नरकों में द्वितीय नरक शीत तप का उल्लेख - अस्याधः पुनरप्यन्यः शीतस्तप इति स्मृतः। तृतीयः कालसूत्रः स्यान्महाहविविधिः स्मृतः ।।), १०१.२०८/२.३९.२०७(तप नरक? के शीतात्मा होने का उल्लेख - उष्णस्तु रौरवो ज्ञेयस्तेजो घोररसात्मकः ।। ततो घनात्मिकश्चापि शीतात्मा सततं तपः।), १०१.२०८/ २.३९.२११(क्रियाशील मनुष्यों द्वारा व्यक्त को तप आदि से देखने का निर्देश - व्यक्तं तर्केण पश्यन्ति योगात्प्रत्यक्षदर्शिनः। प्रत्याहारेण ध्यानेन तपसा च क्रियात्मनः ।। ), विष्णु २.७.१४(तपोलोक में दाह वर्जित वैराज देवों की स्थिति का उल्लेख - चतुर्गणोत्तरे चोर्ध्वं जनलोकात्तपः स्थितः। वैराजा यत्र ते देवाः स्थिता दाहविर्जिताः॥ ), विष्णुधर्मोत्तर ३.११९.१०(तप के समारम्भ में नर - नारायण की पूजा का उल्लेख - शिल्प कर्मसमारम्भे विश्वरूपं समर्चयेत् ।। तपसश्च समारम्भे नरनारायणावुभौ ।।), ३.२६६(तप की प्रशंसा का वर्णन - तपसा प्राप्यते स्वर्गस्तपसा प्राप्यते यशः ।। आयुःप्रकर्षं भोगांस्तु तपसा विन्दते महत् ।। ...), शिव १.१७.१११(तप रूपी वृषभ/ नन्दी का उल्लेख - राजसं मंडपं तत्र नंदीसंस्थानमुत्तमम्। तपोरूपश्च वृषभस्तत्रैव परिदृश्यते॥ ), ५.१२.३७(तप के माहात्म्य तथा फल का वर्णन - तपो हि परमं प्रोक्तं तपसा विद्यते फलम् ।। तपोरता हि ये नित्यं मोदंते सह दैवतैः ।।), ५.१९.१४(सात महालोकों में से एक तपोलोक में वैराज देवों की स्थिति ; जनलोक तथा सत्यलोक का मध्यवर्ती लोक - चतुर्गुणोत्तरे चार्द्धे जनलोकात्तपः स्मृतम् ।। वैराजा यत्र देवा वै स्थिता दाहविवर्जिताः ।।), ५.२०.४(तप का माहात्म्य तथा सात्त्विक, राजस, तामस भेद से तप के ३ प्रकार - सात्त्विकं दैवतानां हि यतीनामूर्द्ध्वरेतसाम् ।। राजसं दानवानां हि मनुष्याणां तथैव च ।।...), ७.२.२२.४४(कर्मयज्ञ, तपोयज्ञ, जपयज्ञ, ध्यानयज्ञ तथा ज्ञानयज्ञ नामक पञ्चयज्ञों में उत्तरोत्तर की श्रेष्ठता - कर्मयज्ञस्तपोयज्ञो जपयज्ञस्तदुत्तरः ॥ ध्यानयज्ञो ज्ञानयज्ञः पञ्च यज्ञाः प्रकीर्तिताः ॥), स्कन्द १.१.३१.१३(शङ्कर की तुष्टि तप से, ब्रह्मा की कर्म से व विष्णु की यज्ञ, उपवास, व्रत से होने का कथन - तपसा परमेणैव तुष्टिं प्राप्तोसि शंकर॥ कर्मणा परमेणैव ब्रह्मा लोकपितामहः॥), १.२.५.१८(केवल विद्या या तप की अपेक्षा दोनों की उपस्थिति होने पर दान प्रतिग्रह की पात्रता होने का कथन - न विद्यया केवलया तपसा वापि पात्रता॥ यत्र वृत्तिमिमे चोभे तद्वि पात्रं प्रचक्षते॥), ४.१.१४.१७(अत्रि द्वारा अनुत्तर नामक तप से रेतः का सोम में परिवर्तित होना - अनुत्तरं नाम तपो येन तप्तं हि तत्पुरा ।।....ऊर्ध्वमाचक्रमे तस्य रेतः सोमत्वमीयिवत् ।।), ५.१.६.६ (तपस्वियों द्वारा सकल तथा ज्ञानियों द्वारा निष्कल परम के दर्शन का कथन - सकलं निष्कलं चापि देवाः पश्यंति योगिनः ।। तपस्विनस्तु सकलं ज्ञानिनो निष्कलं परम् ।। ), ५.२.८३.१५(बिल्व व कपिल नामक मित्रों में परस्पर वार्तालाप में बिल्व द्वारा दान तथा तीर्थ का प्राधान्य और कपिल द्वारा ब्रह्म व तप के प्राधान्य का प्रतिपादन - दानं प्रधानं तीर्थं तु बिल्वेनोक्तं पुनःपुनः ।। ब्रह्म श्रेष्ठं तपः श्रेष्ठमित्युक्तं कपिलेन तु।।), ५.३.५१.३५(देव को अर्पण करने योग्य ८ शास्त्रोक्त मानस पुष्पों में से एक - तृतीयं तु दया पुष्पं क्षमा पुष्पं चतुर्थकम् । ध्यानपुष्पं तपः पुष्पं ज्ञानपुष्पं तु सप्तमम् ॥), ५.३.१०३.४५(अनसूया को तपाचरण के फलस्वरूप विप्र रूप में रुद्र, विष्णु व ब्रह्मा के दर्शन, अनसूया द्वारा तप की प्रशंसा - तपसा सिध्यते स्वर्गस्तपसा परमा गतिः । तपसा चार्थकामौ च तपसा गुणवान्सुतः ।), ५.३.१८१.१६(क्रोध से तप के नष्ट होने का उल्लेख - स्त्री विनश्यति गर्वेण तपः क्रोधेन नश्यति । गावो दूरप्रचारेण शूद्रान्नेन द्विजोत्तमाः ॥), ६.२७१.१०८(तपस्वियों का रूप क्षमा होने का उल्लेख - कोकिलानां स्वरो रूपं नारीरूपं पतिव्रता॥ विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥), योगवासिष्ठ ३.७२+(कर्कटी सूची के तप का वर्णन), ६.१.९०.१९(तप की कांच मणि से उपमा - सर्वत्यागमणावेवं गते कमललोचन । तपःकाचमणिर्दृष्टस्त्वया संकल्पचक्षुषा ।। ), लक्ष्मीनारायण १.१०९.४३(नर - नारायण के तप के संदर्भ में तप के अर्थ का कथन : घ्राण आदि से अन्य का घ्रातव्य न होना आदि - घ्राणेनाऽन्यन्न घ्रातव्यमित्येतत्तप उच्यते । ततोऽपि च त्वचा चान्यन्न स्प्रष्टव्यं विशिष्यते ।।), १.२८३.३६(अनशन के तपों में अनन्यतम होने का उल्लेख - नास्ति गंगासमं तीर्थं नास्ति मातृसमो गुरुः । नास्ति विष्णुसमो देवस्तपो नाऽनशनात्परम् ।।), १.४८९.७१(सत्ययुग में तप की श्रेष्ठता का उल्लेख - धेनुः प्राह तपः सत्ये, त्रेतायां ध्यानमेव तु ।। द्वापरे यज्ञदानं च, दानमेकं कलौ शुभम् ।), २.२२७.५९( शारीर, मानस, बुद्धि आदि स्तरों पर तपों का कथन - ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप तन्मतम् । मत्स्मृतिर्मनसो रोधो मानसं तप एव तत् ।।), २.२४५.५७(सत्ययुगी जनों के तपोधर्मपर होने का उल्लेख - तपोधर्मपराः प्रोक्ताः सत्ययुगिन एव ह । यज्ञधर्मपराः प्रोक्तास्त्रेतायुगिन एव ह ।), ३.२१.६५(तप व भक्ति में श्रेष्ठता का प्रश्न : भक्ति विना आत्यन्तिक श्रेय प्राप्त न होने का कथन - तपसा न भवेच्छ्रेय आत्यन्तिकं तपोधनाः ।।….भक्त्या चात्यन्तिकं श्रेयश्चात्यन्तिकमवाप्स्यथ ।), ३.१०९.६(मूर्धन्य कर्म के तप होने का उल्लेख ; मौन व्रत, ब्रह्मचर्य व्रत, अहिंसा व्रत आदि तपों व उनके फलों का वर्णन - तपः कर्म हि मूर्धन्यं कर्मणां भवते सदा । स्वर्गः श्रेष्ठो हि तपसा लभ्यते कीर्तिसंभृतः ।।), ३.११३.१(विभिन्न तपों के फलों का वर्णन - औदार्यं परमं प्रोक्तं तपो व्ययात्मकं सदा । धनं दद्याद् वनं दद्याद् गृहं दद्याच्छुभाश्रयम् ।।), ४.९४(श्रीहरि का पित्रादि देवगणों के वास स्थान तपोलोक में गमन, पूजन का वर्णन - तपोलोकं प्राजगाम तापसानां निवासनम् ।। अर्यमादिकपितॄणां पुण्यस्थानं परं दिवम् ।), कथासरित् ७.६.१३(तपोदत्त ब्राह्मण द्वारा विद्या प्राप्ति हेतु तप, इन्द्र द्वारा ब्राह्मण वेश में सिकता - सेतु के उद्धरण द्वारा विद्या प्राप्ति हेतु अध्ययन की अनिवार्यता तथा तप की व्यर्थता का प्रतिपादन - स विद्यासिद्धये तप्तुं तपो गङ्गातटं ययौ ।। तत्राश्रितोग्रतपसस्तस्य तं वीक्ष्य विस्मितः ।), १७.४.१२५(तपोधन नामक मुनि का शिष्य के साथ गौरी वन में आगमन, भवितव्यतावश शिष्य द्वारा मुक्ताफलकेतु को शाप देना, तपोधन द्वारा भविष्य का कथन - अत्रान्तरे मुनिर्दैवात्तद्गौरीवनमागमत् । दृढव्रतेन शिष्येण सह नाम्ना तपोधनः ।।), महाभारत उद्योग ४३.८(तप की व्याख्या, केवल प्रकार के तप की परिभाषा, तप के कल्मष ), ४३.११(धृतराष्ट्र - सनत्सुजात संवाद में समृद्ध व असमृद्ध आदि केवल तप का वर्णन - निष्कल्मषं तपस्त्वेतत्केवलं परिचक्षते। एतत्समृद्धमप्यृद्धं तपो भवति केवलम् ।।), शल्य ४८(भरद्वाज - पुत्री श्रुतावती के तप का वृत्तान्त), शान्ति ११.२१(पक्षी रूप धारी इन्द्र द्वारा तप की व्याख्या - तपः श्रेष्ठं प्रजानां हि मूलमेतन्न संशयः। कुटुम्बविधिनाऽनेन यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।।), १४.१४(तप युक्त ब्राह्मण तथा दण्ड युक्त क्षत्रिय के शोभा पाने का श्लोक), ७९.१७(तप के यज्ञ से भी श्रेष्ठ होने का उल्लेख ; तप के अहिंसा आदि लक्षणों का कथन - अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यं दमो घृणा। एतत्तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम्।।), १६१(तप की महिमा ; अनशन, संन्यास आदि के परम तप होने का कथन - अहिंसा सत्यवचनं दानमिन्द्रियनिग्रहः। एतेभ्यो हि महाराज तपो नानशनात्परम्।। ), २१७.१७(शारीरिक व मानसिक तप की परिभाषा - ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते । वाङ्मनोनियमः साम्यं मानसं तप उच्यते ॥), २२१.३(भीष्म द्वारा युधिष्ठिर हेतु तप के वास्तविक स्वरूप का प्रतिपादन - त्यागश्च सन्नतिश्चैव शिष्यते तप उत्तमम्। सदोपवासी स भवेद्ब्रह्मचारी सदा भवेत्।।), २५१.११(दान का उपनिषत्/सार तप व तप का त्याग होने का उल्लेख - दमस्योपनिषद्दानं दानस्योपनिषत्तपः।। तपसोपनिषत्त्यागस्त्यागस्योपनिषत्सुखम्।), २३२.३१(द्विजातियों के लिए तप के ही यज्ञ होने का उल्लेख ), २७१.३७(तपोरत ब्राह्मण को दिव्य सिद्धियों की प्राप्ति - ततः प्रहृष्टवदनो भूय आरब्धवांस्तपः। भूयश्चाचिन्तयत्सिद्धो यत्परं सोऽभिमन्यते।। ), २९५.१२(पराशर गीता के अन्तर्गत तप की प्रशंसा - शास्त्रार्थदर्शनाद्राजसंस्तप एवानुपश्यति।।…), ३०१.६३(तप दण्ड का उल्लेख - पुण्यांश्च सात्विकान्गन्धान्स्पर्शजान्देहसंश्रितान्। छित्त्वाऽऽशु ज्ञानशस्त्रेण तपो दण्डेन भारत।।), ३१८.४१(तप के प्रकृति व अतपा के निष्कल होने का कथन - तपास्तु प्रकृतिं प्राहुरतपा निष्कलः स्मृतः।। सूर्यमव्यक्तमित्युक्तमतिसूर्यस्तु निष्कलः।), ३२९.११(तप की क्रोध से रक्षा करने का निर्देश - नित्यं क्रोधात्तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेच्च मत्सरात्। विद्यां मानावमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः।।), अनुशासन ५७.१०(अहिंसा, दीक्षा, फलमूल अशन आदि विभिन्न तपों से प्राप्त विभिन्न फलों का कथन - सौभाग्यं चैव तपसा प्राप्यते भरतर्षभ।। धनं प्राप्नोति तपसा मौनं ज्ञानं प्रयच्छति।), १२१.७(ब्राह्मणत्व के ३ कारणों में से एक - तपः श्रुतं च योनिश्चाप्येतद्ब्राह्मण्यकारणम्। त्रिभिर्गुणैः समुदितः स्नातो भवति वै द्विजः।।), १२२.५(व्यास - मैत्रेय संवाद में तप की प्रशंसा - अहं दानं प्रशंसामि भवानपि तपःश्रुतेः। तपः पवित्रं वेदस्य तपः स्वर्गस्य साधनम्।। ) ; द्र. दीर्घतपा, प्रतपन, सत्यतपा, सुतपा, सूर्यतपा । tapa
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