top of page

ऋग्वेदे ऋभवः एवं इन्द्राग्नी रथस्य तक्षणं कुर्वन्ति। अयं तक्षणस्य एकः पक्षः अस्ति यत्र तिर्यक् गत्यां रंहणात् रथस्य निर्माणं भवति। तक्षणस्य अन्यः पक्षः इन्द्राय वज्रस्य तक्षणमस्ति। अयं तक्षणं केन प्रकारेण भवति, अस्योल्लेखं प्रत्यक्षरूपेण कुत्रापि न दृश्यते। भविष्यपुराणे १.३४.२२ कथनमस्ति यत् तक्षकः भूमिपुत्रः अस्ति - तक्षकं भूमिपुत्रं तु कर्कोटं च बुधं विदुः ।। अत्र भूमिपुत्रः मंगलग्रहस्य पर्यायः अस्ति। भूमिपुत्रस्य एकः अभिप्रायः अस्ति यत् यः पृथिवीतत्त्वः अस्ति, तस्मात् अग्नितत्त्वस्य विकसनम्। भविष्यपुराणे ४.३४ उल्लेखः अस्ति - उदरं तक्षकायेति उरः कर्कोटकाय च ।। प्रकृत्यां सार्वत्रिकरूपेण देहमध्ये पृथिवीतः अग्नितत्त्वस्य विकासं भवति, यत् उदरे क्षुधारूपेण दृश्यते। किमयं अग्नितत्त्वस्य विकसनं वज्रस्य निर्माणाय पर्याप्तं अस्ति, विचारणीयं अस्ति। अग्नितत्त्वतः वायुतत्त्वस्य विकसनं संभवमस्ति।

मंगलग्रहस्य विषये पुराणेषु उल्लेखाः सन्ति यत् देवस्य वीर्यस्य पृथिव्योपरि क्षरणतः मंगलग्रहस्य उत्पत्तिः भवति, यथा वराहावतारस्य (देवीभागवतपुराणम् ९.९.४३), रुद्रस्य स्वेदबिन्दुतः वीरभद्र/मंगलग्रहस्य उत्पत्तिः ( पद्मपुराणम् १.२४), शुक्रस्य भूम्योपरि पातनात् मंगलग्रहस्य उत्पत्तिः (पद्मपुराणम् १.८१.४०), उपेन्द्रवीर्यस्य पृथिव्योपरि पतनात् मंगलस्योत्पत्तिः (ब्रह्मवैवर्तपुराणम् १.९.२१), रुद्रभालतः स्वेदबिन्दोः पतनतः मंगलग्रहस्य उत्पत्तिः (शिवपुराणम् २.३.१०) आदि।

एवंप्रकारेण, अयं अस्पष्टं अस्ति यत् मंगलग्रहस्य उत्पत्तिः पृथिवीतत्त्वतः अग्नितत्त्वस्य विकसने भवति अथवा देवानां वीर्यस्य पृथिव्योपरि पतनेन। मंगलग्रहस्य अर्चनस्य ऋक् अस्ति - अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम् । अपां रेतांसि जिन्वति ॥ ऋ. ८.४४.१६॥ अत्र कथनमस्ति यत् अग्नेः विकासं मूर्द्धापर्यन्तं भवति। मूर्द्धाउपरि ककुदस्य निर्माणं द्युलोकस्य वीर्यतः भवति। (बुद्धपुरुषाणां शिरः बहुककुदयुक्तः भवति, इति प्रसिद्धमस्ति)।

व्यावहारिकदृष्ट्या, भविष्यपुराणे ४.३४ यः उल्लेखः अस्ति यत् विष्णोः उदरे तक्षकस्य न्यासं करणीयः अस्ति, तत् महत्त्वपूर्णमस्ति। उदरः जठराग्नेः स्थानमस्ति। यः जठराग्निः अस्ति, तत् यूपस्य तक्षणाय परशुस्वरूपः अस्ति। जठराग्न्याः विस्तारं देहे सर्वत्र भवेत्, अयं अपेक्षितमस्ति। अयं कार्यं न सरलं, किन्तु असम्भवमपि नास्ति। ये जनाः दीर्घकालीने उपवासे कुशलाः सन्ति, ते कथयन्ति यत् आरम्भिक चतुःपंचदिनानि यावत् क्षुधातः कष्टं भवति, तदोपरि जठराग्निः देहस्य मांसस्य भक्षणं कर्तुं समर्था भवति। उपवासकाले यमनियमादियोगाभ्यासेन जठराग्न्याः विस्तारं सरलं भवितुं शक्यते। तक्षकसर्पस्य आख्यानेन अनुमानमस्ति यत् तक्षणस्य कार्यं स्थूलतः सूक्ष्मतरस्य, व्यंजनेभ्यः स्वरस्य दिक्षु भवति। कण्ठः विशुद्धिचक्रस्य स्थानमस्ति यत्र स्वराः एव शिष्यन्ते, न व्यंजनाः। कुंडली और सातशरीर संज्ञके रजनीशमहोदयस्य व्याख्याने कथनमस्ति यत् विशुद्धिचक्रे चेतना देहतः बहिर्गत्वा अन्यजनस्य चेतनायां प्रवेशे समर्था भवति। अयं संभवमस्ति यत् तक्षकस्य कार्यं चेतनायाः एवंप्रकारस्य विस्तारस्य रोधनमस्ति।

(फाल्गुनकृष्णसप्तमी, विक्रमसंवत् २०७८)

 

 

 

 

The word Taksha/ Takshaa/ Takshaka in vedic literature is used for a carpenter. The duty of a carpenter is to create roopa/form. The material from which he has to create form may be either wood or a rock. In spirituality, the rock is made of light, luster. For a devotee, there is manifestation of light in the first stage. When this light becomes strong, one is supposed to reorganize it in a particular form. In Soma yaaga, there are two last days where this act is performed. On fifth day, giving names to forces is predominant. On sixth day, giving form is predominant.

          There is a story that when the luster of sun became unbearable, the divine potter put him on his wheel and cut his extra luster. This extra luster was used to form the weapons of gods.

          It is important to know how practically one can form the luster. One process is going automatically in nature. It has been told in vedic literature that our sensory organs existing in head also exist in other parts of the body as well, but in undeveloped form. For example, our knees, breasts have been said to be undeveloped forms of eyes. This is a part of divine craft going on automatically. How one can add his own contribution to this is yet to be decided. If one makes efforts, it is possible that he is able to develop the signs of a Buddha on his body.

          Regarding serpent Takshaka, it has been stated that there is some resemblance between planet Mars and Takshaka. What is this resemblance? Both lead to violence. Actually, this tendency is predominant when these two are in undeveloped form. As these are developed, get pure, free from rigidity, they lead to nonviolence.

          The path of name and form has been stated to be a path of slow progress.

First published : :  2-4-2010AD(

प्रथम प्रकाशित :  वैशाख कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत 2067

तक्ष/तक्षक

टिप्पणी : सामान्य अर्थों में तक्षा बढई, काष्ठ द्रव्य की काट – छांट करने वाले को कहते हैं(पंजाबी भाषा में तरखान) । वैदिक दृष्टिकोण से तक्षा का अर्थ शिल्पी, शिल्प का निर्माण करने वाला लिया जा सकता है । तब तक्षा शब्द में किसी भी मूर्ति के निर्माता का समावेश हो जाता है, चाहे वह काष्ठ की हो अथवा शिला की । वास्तुसूत्रोपनिषद ( मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली द्वारा प्रकाशित) में विस्तार से निर्देश हैं कि एक भक्त को शिला से अपने इष्ट देव की मूर्ति के निर्माण के लिए किन – किन औजारों की आवश्यकता पडेगी । बाह्य रूप में शिला से मूर्ति के निर्माण के लिए छेनी, हथौडे आदि की आवश्यकता पडती है । आध्यात्मिक रूप में शिला ज्योति का एक पुंज होगा । छेनी/अभ्रि    ? 

     कर्मकाण्ड में पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग के छठें दिन शिल्पों का निर्माण होता है । शांखायन ब्राह्मण में कहा गया है कि हस्ती, अश्व, रथ, कंस, हिरण्य आदि शिल्प हैं । इसका यह अर्थ लिया जा सकता है कि इन सबसे शिल्प का निर्माण करना है । यह कहा जा सकता है कि कुरूप स्थिति को अथवा रूपरहित स्थिति को रूप प्रदान करना ही शिल्प है । यह कार्य छठें दिन किया जाता है । इससे पहले पांचवां दिन शाक्वर अह कहलाता है । इस दिन विभिन्न प्राणों को नाम प्रदान करके उन्हें जाग्रत करना होता है । छठां दिन रैवत अह कहलाता है ।

     पुराणों और वेदों में जिन तक्षों का उल्लेख आया है, वह हैं – त्वष्टा, ऋभु, इत्यादि । एक पौराणिक कथा में आता है कि जब त्वष्टा की पुत्री तथा सूर्य की पत्नी संज्ञा सूर्य का तेज सहन करने में असमर्थ हो गई, तब त्वष्टा ने सूर्य को अपने चक्र पर रखकर घुमाया और उसके फालतू तेज का कर्तन कर दिया । इस अतिरिक्त तेज से हस्ती आदि तथा देवों के अस्त्रों वज्र आदि का निर्माण हुआ । हमारे शरीर में भी यही स्थिति है । हमारे शरीर में जब भी कोई नया विकास होना होता है, वह उसी ऊर्जा से हो पाता है जो वर्तमान में जीवन यापन में व्यय हो रही ऊर्जा से अतिरिक्त बच जाती है । और हमारी देह को भी शिल्प का एक उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि हमारी देह में ज्ञानेन्द्रियों का विकास क्रमिक रूप से हुआ है । आंख, नाक, कान आदि पैरों में भी विद्यमान हैं, लेकिन अविकसित अवस्था में हैं । घुट्टियों को संभवतः आंख कहा गया है । इससे अगले स्तर पर घुटनों को दो आंखें कहा गया है । अगले स्तर पर वृषण आंखों का अविकसित रूप हैं । इससे अगले स्तर पर स्तन आंखों का प्रतीक हैं । अन्त में सिर में जाकर आंखें पूर्णतया विकसित हो पाई हैं । जंगम जगत से पहले वृक्ष आदि स्थावर जगत है । कहा गया है कि जंगम जगत में जो हथेली है, वह स्थावर जगत में पत्तों का रूप है । इस प्रकार शिल्प के तक्षण के लिए हमें जड जगत से लेकर देव जगत तक की यात्रा करनी होगी । मनुष्य देह का विकास बुद्धत्व की स्थिति तक हो पाता है जिसमें मूर्द्धा में ककुद, कानों में कुण्डल, नाक में नत्थिका, पाद समतल तथा आयताकार आदि आदि हो सकते हैं ।

     मनुष्य देह का बहुत सा विकास ऐसा है जिसे करने के लिए प्रकृति स्वयं प्रयत्नशील है । हमें केवल इतना ही करना है कि हम प्रकृति के कार्य में सहयोग करें, उसके विपरीत आचरण न करें । ऋग्वेद 1.164.41 की प्रसिद्ध ऋचा निम्नलिखित है –

गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी ।

अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन् ।।  

इस ऋचा में गौरी अर्थात् सात्विक प्रकृति द्वारा सलिलों के तक्षण का उल्लेख है । सलिल रूप की अव्यक्त अवस्था को अविकसित अवस्था को कह सकते हैं ।

     वैदिक ऋचाओं में  रथ के तक्षण के संदर्भ में भी मनुष्य देह की कल्पना एक रथ के रूप में की जा सकती है ।

     ऋग्वेद 9.112.1 में उल्लेख है कि किस व्यक्ति की क्या इच्छा रहती है । तक्षा की अभिलाषा रहती है कि रिष्ट(हिंसा?) हो । भिषक् की अभिलाषा रहती है कि रोग हों इत्यादि । जब रोग होंगे तभी भिषक् चिकित्सा कर पाएगा । तक्षा द्वारा रिष्ट की अभिलाषा के संदर्भ में, महावीर के संदर्भ में उल्लेख आता है कि उनके परितः एक विशेष परिधि में रिष्ट हो ही नहीं सकता था (अरिष्टनेमि)। यह विचारणीय है कि तक्षा रिष्ट से मुक्त होने का क्या उपाय कर सकता है । ऋग्वेद 1.32.2, 1.61.6 में स्वर्य वज्र के तक्षण के उल्लेख हैं । स्वर्य से अर्थ है जिसमें केवल स्वर रह गए हैं, व्यंजन रूपी जडत्व का लोप हो गया है । जडत्व का लोप करना ही तक्षण है । ऐसा प्रतीत होता है कि रिष्ट की संभावना तभी तक है जब तक जडत्व विद्यमान है ।

     पुराणों में तक्षक नाग का तादात्म्य मंगल ग्रह से दिया गया है । मंगल को भौम कहा जाता है, भूमि से उत्पन्न । इस ग्रह का दूसरा नाम अंगारक भी है । यह नाम संकेत करते हैं कि मंगल ग्रह पृथिवी तत्त्व से अग्नि के विकास की, अग्नि तन्मात्रा की स्थिति है । जैसा कि सर्वविदित है, मंगल ग्रह का फल हिंसा के रूप में होता है ।

     ऋग्वेद 4.33.8, 4.35.6, 4.36.8 में रयि के तक्षण के उल्लेखों के संदर्भ में कहा जा सकता है कि तक्षण द्वारा व्यक्तित्व का विकास रयि का, कुण्डलिनी विकास का, धीमी गति का, पितृयान का मार्ग है । दूसरी ओर प्राण का विकास तीव्र गति का, देवयान मार्ग है ।

     ऋग्वेद की ऋचाओं में विभिन्न देवों अथवा मनुष्यों द्वारा जिन वस्तुओं के तक्षण का उल्लेख है, वे हैं रथ(ऋग्वेद 1.20.3, 1.111.1, 5.31.4) वज्र(ऋग्वेद 1.32.2, 1.52.7, 1.61.6, 1.121.3, 1.121.12, 5.31.4, 10.92.7, 10.99.1), धेनु(ऋग्वेद 1.20.3, 4.34.9) , अश्व(ऋग्वेद 4.34.9), धी(ऋग्वेद 3.54.17), द्यौ(ऋग्वेद 3.38.2), मन्म(ऋग्वेद 2.19.8), माता, वयः(ऋग्वेद 1.111.2, 4.36.8), यौवन(ऋग्वेद 4.36.3, 10.39.4), साति?(ऋग्वेद 1.111.3), रयि(ऋग्वेद 4.33.8, 4.35.6, 4.36.8), चषाल(1.162.6), सलिल, हरि – द्वय(ऋग्वेद 1.20.2, 1.111.1), वाक्(ऋग्वेद 6.32.1) , ब्रह्माणि ( ऋग्वेद 5.73.10, 10.80.7 ), रूप(ऋग्वेद 8.102.8), स्वधिति( ऋग्वेद 3.8.6), घृत(ऋग्वेद 4.58.4), 7 मर्यादाएं( 10.5.6),  सह(ऋग्वेद 1.51.10) इत्यादि ।

With reference to the mention of two sons of Bharata - Taksha and Pushkala, reference may be made to two saama chants which take place in the third session of a soma yaaga. Their names are Sabha/assembly and Paushkala. The property of the first saama has been stated to be that it has the properties of vowels and remains at the top. This removes the deficiencies in the yaaga. This can only visualize animals which all have one form.  This can fetch all the wealth of demons. On the other hand, the second saama - Paushkala, produces animals of different forms. This indicates that the first saama is connected with  coming down from abstract trance, with the life force just produced after coming down from abstract trance. The vowel nature indicates that this saama is free from all the earthly impurities which consonants have. Then Paushkala saama is concerned with life forces connected with consonants which may have many forms. It is noteworthy that in an assembly, the views of the members may be different. These two saamaas seem to have been transformed in puraanic texts into the story of Nala and Pushkara and two sons of Bharata. In case of king Nala, he was a master of the art of horse riding, but did not know the play of dice. That is why he loses the game to his younger brother Pushkara. After that he regains his kingdom after learning the art of play of dice. It can be said that the consciousness having vast expanse( a state in abstract trance, or a state just below abstract trance) may represent the art of horse riding, while the state of concentrating this consciousness into mortal body may represent the art of dice.

First published : 30-1-2008AD

 

प्रथम प्रकाशित : माघ कृष्ण अष्टमी, विक्रम संवत 2064

 

पुराणों में भरत – पुत्रों तक्ष व पुष्कल के संदर्भ में, सोमयाग के तृतीय सवन में सफ/सभपौष्कल साम गान का विधान है । इनमें से सफ साम ककुप् छन्द में है जबकि पौष्कल उष्णिक् छन्द में । जैमिनीय ब्राह्मण 1.160 का कथन है कि सभ साम(पवस्व मधुमत्तम इन्द्राय सोम क्रतुवित्तमो मदः) का लाभ यह है कि इससे यज्ञ में जो दुःशस्त, दुष्टुत, विधुर होता है, वह सभा बन जाता है (डा. फतहसिंह के अनुसार एक सभा होती है, एक समिति । सभा में सदस्यों के विचार भिन्न – भिन्न होते हैं, समिति में एक जैसे । सभ साम के द्वारा देवों ने असुरों के तेज, बल, इन्द्रिय वीर्य, पशु, अन्नाद्य आदि को अपने अधिकार में कर लिया । प्रजापति से उत्पन्न होने के पश्चात् जो पशु दूर चले गए थे, वह सभ साम से उनके निकट आ गए । यह साम स्वारं है तथा ककुप् प्रकार का है ( अ, आ आदि स्वर कहलाते हैं जिनका स्थान विशुद्धि चक्र में होता है । इससे निचले चक्रों में व्यञ्जनों की स्थिति होती है । व्यञ्जनों में जड तत्त्व, पृथिवी तत्त्व विद्यमान रहते हैं, जबकि स्वर इनसे मुक्त होते हैं)। इससे आगे कहा गया है कि प्राण ही स्वारं है ( अर्थात् प्राण को शुद्ध करके स्वारं बनाया जा सकता है )। छन्दों में पुरुष ककुप् प्रकार का है । प्राण ही ज्येष्ठ्य है, पुरुष भी ज्येष्ठ्य है . इससे आगे कहा गया है कि सभ साम से प्रजापति को जिन पशुओं का ज्ञान हुआ, वह सब एक रूप वाले, रोहित थे । इसके पश्चात् पुष्कल आङ्गिरस ने पौष्कल साम(इन्द्रमच्छ सुता इमे वृषणं यन्तु हरयः इति) का दर्शन किया जिससे पशुओं में बहुरूपता (श्वेत, रोहित व कृष्ण) उत्पन्न हुई । यह साम चतुरक्षर निधन वाला है और पशु (पश्यति इति पशु) भी चतुष्पाद(डा. फतहसिंह पशुओं के 4 पादों को अन्नमय, प्राणमय, मनोमय तथा विज्ञानमय कोश मानते हैं ) होते हैं । इसका निहितार्थ यह हुआ कि जब स्वरों में विकृति आती है और वह व्यञ्जनों में रूपान्तरित होते हैं, तब पशु बहुरूप बनते होंगे । इसका निष्कर्ष यह निकल रहा है कि यह निर्विकल्प समाधि से क्रमिक व्युत्थान की स्थिति है ।

जहां वैदिक साहित्य में सभ/सफ व पौष्कल सामों का उल्लेख है, वही पौराणिक साहित्य में तक्ष और पुष्कल का उल्लेख है । इससे यह संकेत मिलता है कि पुराणकारों ने सभ और तक्ष में समानता का दर्शन किया है . तक्ष का बहुप्रचलित अर्थ तक्षण, काटना – छांटना है . लेकिन तक्ष धातु का एक और भी अर्थ है – व्यक्त करना, बोलना । पुराणों की एक कथा में तक्षक नाग भट्टिका से समागम करना चाहता है, बलात्कार करना चहता है । भट्ट धातु परिभाषण के अर्थ में है, प्रशंसा करना । इस प्रकार तक्ष की स्थिति निर्विकल्प समाधि से प्राणों के प्राथमिक संचार की स्थिति हो सकती है । भट्ट स्थिति इसके पश्चात् की स्थिति हो सकती है ।

पुराणों की कथाओं में नल द्यूत में अपने अनुज पुष्कर से हार जाता है । कालान्तर में नल द्यूत/अक्ष विद्या सीखता है और उसके पश्चात् पुष्कर को द्यूत में हराकर अपना राज्य पुनः प्राप्त करता है । सफ/सभ साम यह संकेत दे रहा है कि यद्यपि यह स्वारं प्रकार का साम है जहां जडता नहीं होनी चाहिए, लेकिन इसमें सभा की विविधता विद्यमान है जिसके कारण इस साम में अक्ष स्थिति प्राप्त नहीं हो सकी है जो द्यूत में जीतने के लिए आवश्यक है । दूसरे शब्दों में इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि यह साम स्वारं प्रकार का है जहां चेतना की कोई सीमा नहीं होती, चेतना असीम होती है । लेकिन जब इस चेतना को पु़ञ्जीभूत करने का, अक्ष बनाने का, मर्त्य स्तर पर अवतरित करने का प्रश्न आता है तो यह कार्य सुचारु रूप से नहीं हो पाता । अतः स्वारं प्रकार के साम की स्थिति को नल आख्यान के संदर्भ में अश्व विद्या कह सकते हैं जिसमें नल निष्णात है ।

bottom of page