गङ्गा दशहरा
ज्येष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलादवतरदसौ जाह्नवी मर्त्यलोकम् । (नारद पुराण 2.40.21) कहा जा रहा है कि ज्येष्ठ मास को मंगलवार को शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को हस्त नक्षण में जाह्नवी का पहाडों से मर्त्यलोक में अवतरण हुआ। ज्येष्ठ शब्द को वैदिक साहित्य में कुछ उल्लेखों से समझा जा सकता है। शौनकीय अथर्ववेद का कथन है कि
यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् ।
दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३२॥
यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः ।
अग्निं यश्चक्र आस्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३३॥
यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरङ्गिरसोऽभवन् ।
दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३४॥
यः श्रमात्तपसो जातो लोकान्त्सर्वान्त्समानशे ।
सोमं यश्चक्रे केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥शौ.अ.१०.७.३२-३६ ॥
यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति ।
स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥शौ.अ. १०.८.१ ॥
सत्येनोर्ध्वस्तपति ब्रह्मणार्वाङ्वि पश्यति ।
प्राणेन तिर्यङ्प्राणति यस्मिन् ज्येष्ठमधि श्रितम् ॥शौ.अ. १०.८.१९॥
अर्थात् ज्येष्ठ ब्रह्म का क्या स्वरूप होता है ? उसका उदर अन्तरिक्ष का रूप होता है, उसकी मूर्द्धा द्युलोक होती है, चक्षु सूर्य का रूप, अग्नि उसका मुख, प्राणापानौ वात, दिशाएं प्रज्ञानी आदि । वहां सत्य से ऊर्ध्व लोक तपता है, ब्रह्मा द्वारा अधोलोक का चक्षण किया जाता है, प्राण द्वारा तिर्यक् दिशा में प्राणन किया जाता है।
2.कहा गया है कि अग्निष्टोम याग द्वारा ज्येष्ठ ब्रह्म की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। पुराणों में ब्रह्मा द्वारा ज्येष्ठ पुष्कर में अग्निष्टोम याग करने का वर्णन आता है जिसमें सावित्री की अनुपस्थिति में ब्रह्मा को गायत्री को पत्नी रूप में प्रतिष्ठित करना पडा था। बाद में सावित्री व गायत्री ने देवों को शाप – प्रतिशाप आदि दिए।
3.जैमिनीय ब्राह्मण में 2.9 में महाव्रतीयम् अह का उल्लेख आता है। महाव्रतीयम् अह सोमयाग का एक ऐसा दिन है जिसमें यजमान व ऋत्विज सोमयाग के गंभीर पक्ष को भूल कर वास्तविक जीवन में उतरने का प्रयत्न करते हैं। इस उल्लेख में तद् इद् आस भुवनेषु ज्येष्ठम् ऋचा के आधार पर कहा जा रहा है कि तद् का अर्थ ज्येष्ठ स्थिति का ततनम्, विस्तार करना है। ऋग्वेद 5.44.1 में ज्येष्ठताति शब्द प्रकट होता है। यह ज्येष्ठताति बर्हिषद के रूप में, बर्हि पर स्थित होने के रूप में होती है। बर्हि का साधारण अर्थ बाहर लिया जा सकता है। वैदिक साहित्य में एक प्रस्तर शब्द है, एक बर्हि। प्रस्तर तो उच्च स्थिति का प्रतीक प्रतीत होता है, जबकि बर्हि निचली स्थिति का।
4.ज्येष्ठ पूर्णिमा व्रत के संदर्भ में कथा आती है कि इन्द्र ने दिति के गर्भ के टुकडे तो कर दिए, लेकिन पूर्णिमा व्रत के प्रभाव से वह टुकडे मरे नहीं। तब इन्द्र ने मरुतों के नाम से उन्हें अपना सखा बना लिया। ऋग्वेद 1.23.8, 2.41.15, 6.51.15, 8.83.9 आदि में इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणाः कहा गया है। इसका अर्थ हुआ कि इन्द्र के ज्येष्ठत्व का लाभ अब मरुतों को, मर्त्य स्तर के प्राणों को भी मिलने लगा है।
5.ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णन आता है कि परशुराम ने कार्तवीर्य सहस्रबाहु अर्जुन से अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए ज्येष्ठ पुष्कर में तप किया लेकिन वह शिव से अस्त्र प्राप्त करने में असफल रहे। तब उन्होंने मध्य पुष्कर में तप किया। वहां उन्हें मृग – मृगी का वार्तालाप सुनाई दिया कि यदि परशुराम कनिष्ठ पुष्कर में जाकर अगस्त्य से कृष्णप्रेमामृत स्तोत्र प्राप्त कर ले तो उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिल सकती है। इस कथा का उपयोग गंगा के पर्वतों से उतर कर मर्त्यलोक में अवतरण की व्याख्या के लिए किया जा सकता है। गंगाजल प्रेमामृत का प्रतीक हो सकता है।
6.गंगा दशहरा के संदर्भ में गंगा के पहाडों से मर्त्यलोक में अवतरण का क्या अर्थ हो सकता है। पुराणों में पहाडों को पुरुष कहा गया है जो पृथिवी का नियन्त्रण करते हैं। अपनी देह के स्तर पर ऐसा कहा जा सकता है कि किसी घटना विशेष के कारण जो हारमोन हमारी देह में स्रवित होते हैं, वह जब रक्त की धारा में मिलते हैं तो हमारी प्रकृति में, व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है। यदि कामुक प्रकार के हारमोन स्रवित हो रहे हैं तो हम कामुक बन जाएंगे, यदि क्रोध के हारमोन स्रवित हो रहे हैं तो हम क्रोधित हो जाएंगे, सारा रक्त गर्म हो जाएगा। प्रश्न यह है कि क्या हारमोन के स्रवित होने और रक्त की धारा में मिलकर हमारे स्वभाव में परिवर्तन होने में कोई समय लगता है अथवा यह कार्य तुरन्त हो जाता है। हो सकता है दोनों ही स्थितियां हों। ऐसा भी हो सकता है कि जब तक हारमोन का अपनी ग्रन्थि विशेष से स्रवण नहीं हुआ है, वह निष्क्रिय स्थिति में है, तब तक उसे पर्वत पर स्थित कहा गया हो। उदाहरण के लिए, पैंक्रियस ग्रन्थि से इंसुलिन स्रवित होता है। यह स्रवण तब होता है जब हम भोजन करते होते हैं। ऐसी स्थिति में पैंक्रियस गन्थि को पहाड कहा जा सकता है और हमारी देह को मर्त्य लोक।
6.ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा ज्येष्ठा नक्षत्र या उसके निकट रहता है। ज्येष्ठ मास की दशमी तिथि में चन्द्रमा प्रायः हस्त नक्षत्र के निकट ही रहता है। हस्त का अर्थ हो सकता है – जो क्रिया के लिए प्रेरित करे – सवितुः प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्यां। उपरोक्त दशाएं यदि भौतिक रूप से पूरी कर भी ली जाएं, तब भी इनका आगे आध्यात्मिक अर्थ खोजना पडेगा।
7.दशमी तिथि का एक अर्थ होता है – जो दसों दिशाओं में फैला हो। दशमी तिथि को जिन प्राणों की प्रतिष्ठा होती है, उन्हें विश्वेदेव कहा जाता है। समझा जाता है कि यह प्राण ऐसे हैं कि इन्हें कहीं भी रख दिया जाए, यह अपने आपको परिस्थिति के अनुकूल विकसित कर लेंगे। दूसरी ओर, एकादशी के प्राण विशिष्ट प्रकार के हैं। यह ऐसी ही स्थिति है जैसे आज के भौतिक विज्ञान में बोस – आईन्स्टीन सांख्यिकी और फर्मी – डिराक सांख्यिकी। दशमी के प्राण अनादिष्ट हैं, स्केलर हैं, एकादशी के प्राण दिष्ट हैं, वैक्टर हैं। दूसरा उदाहरण चिकित्सा विज्ञान में स्टेम कोशिकाओं का दिया जा सकता है जिनसे किसी भी प्रकार की विशिष्ट कोशिका का निर्माण किया जा सकता है।
8.मर्त्यलोक में गंगा के प्रवेश के लिए गंगाद्वार या हरिद्वार या मायापुरी स्थल को चुना गया है। यह अन्वेषणीय है कि इस द्वार के क्या गुण होने चाहिएं। यदि यह माना जाए कि हमारी देह में हमारा पदांगुष्ठ द्वार है तो उसकी तुलना वनस्पति जगत की मूल से की जानी चाहिए। हमारा पदांगुष्ठ तो ब्रह्माण्ड की तरंगों को अवशोषित करने में अवरुद्ध रहता है लेकिन वनस्पतियां तो अपनी आवश्यकता का एक बडा भाग मूल से ही प्राप्त करती हैं। वनस्पति मूल का एक कार्य यह रहता है कि जिस द्रव का, जल का वह अवशोषण करती हैं, उसमें से जो हानिकारण तत्त्व हैं, वह मूल में ही अटके रह जाते हैं। पशु जगत में मूल का स्थान मुख ने ले लिया है। पशु ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का, गंगा का अवशोषण मुख द्वारा करते हैं। मुख की यह विशेषता है कि वह भोजन के हानिकारक तत्त्वों को यथाशक्ति निष्क्रिय करने का प्रयत्न करता है। पशुजगत भले ही ऊर्जा का अवशोषण मूल से न करता हो, लेकिन जठर में पाचन के पश्चात आगे शोधन का कार्य पादमूल से आरंभ होता है। हमारे पद जो रस शोधन करके देते हैं, वह देह के ऊपर के भागों को प्राप्त होता है, उन भागों से अन्त में वह सिर को प्राप्त होता है। यह अन्वेषणीय है कि भौतिक स्तर पर जिस द्वार – हरिद्वार की प्रतिष्ठा की गई है, वह शोधन का कार्य किस प्रकार करता है। हरिद्वार की प्रतिष्ठा में एक कार्य तो यह किया गया है ( नारद पुराण २.६६) कि वहां चार दिशाओं में विशिष्ट लक्षणों की प्रतिष्ठा कर दी गई है। पूर्व दिशा में त्रिपथगा गंगा, दक्षिण दिशा में कनखल में दक्ष के यज्ञ का भंग करने वाले रुद्र देवता, पश्चिम दिशा में कोटितीर्थ तथा उत्तर दिशा में सप्तगंगा(सप्तर्षि आश्रम) की प्रतिष्ठा कर दी गई है।
अतः पूर्वदिशि क्षेत्रं त्रिगङ्गं नाम विश्रुतम्
यत्र त्रिपथगा साक्षाद्दृश्यते सकलैर्जनैः २२
तत्र स्नात्वाथ सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्
सम्यक्छ्रद्धायुतो मर्त्यो मोदते दिवि देववत् २३
तत्र यस्त्यजति प्राणान्प्रवाहे पतितः सति
स व्रजेद्वैष्णवं धाम देवैः सम्यक्सभाजितः २४
ततः कनखले तीर्थे दक्षिणीं दिशमाश्रिते
त्रिरात्रोपोषितः स्नात्वा मुच्यते सर्वकिल्बिषैः २५
अथ यस्तत्र गां दद्याद्ब्रह्मणे वेदपारगे
स कदाचिन्न पश्येत्तु देवि वैतरणीं यमम् २६
अत्र जप्तं हुतं तप्तं दत्तमानन्त्यमश्नुते
अत्रैव जह्नुतीर्थे च यत्र वै जह्नुना पुरा २७
राजर्षिणा निपीताभूद्गण्डूषीकृत्य सा नदी
प्रसादितेन सा तेन मुक्ता कर्णाद्विनिर्गता २८
तत्र स्नात्वा महाभागे यो नरः श्रद्धयान्वितः
सोपवासः समभ्यर्चेद्ब्राह्मणं वेदपारगम् २९
भोजयेत्परमान्नेन स्वर्गे कल्पं वसेत्स तु
अथ पश्चाद्दिशि गतं कोटितीर्थं सुमध्यमे ३०
यत्र कोटिगुणं पुण्यं भवेत्कोटीशदर्शनात्
ओष्यैकां रजनीं तत्र पुण्डरीकमवाप्नुयात् ३१
तथैवोत्तरदिग्भागे सप्तगङ्गेति विश्रुतम्
तीर्थं परमकं देवि सर्वपातकनाशनम् ३२
यत्राश्रमाश्च पुण्या वै सप्तर्षीणां महामते
तेषु सर्वेषु तु पृथक् स्नात्वा सन्तर्प्य देवताः ३३
पितॄंश्च लभते मर्त्य ऋषिलोकं सनातनम्
भगीरथेन वै राज्ञा यदानीता सुरापगा ३४
तदा सा प्रीतये तेषां सप्तधारागताभवत्
सप्तगङ्गं ततस्तीर्थं भुवि विख्यातिमागतम् ३५
9.नारद पुराण 2.43 में ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाए जाने वाले गंगा दशहरा के विषय में 10 पापों को गिनाया गया है और इन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है – कायिक, वाचिक और मानसिक। 3 कायिक पाप हैं जैसे बिना दिए को ग्रहण कर लेना, अवैधानिक हिंसा व परदार की सेवा। चार वाचिक पाप हैं जैसे परुष या कठोर वचन, अनृत वाचन, पैशुन्य, असम्बद्ध प्रलाप। तीन मानसिक पाप हैं जैसे परद्रव्य में ध्यान जाना, मन से अनिष्ट सोचना, वितथ का अभिनिवेश। ठीक यही कथन स्कन्द पुराण 4.1.27 में भी उपलब्ध है। लेकिन नारद व स्कन्द पुराणों का यह कथन पूर्ण नहीं है। पद्म पुराण 5.85 के कथन से इन कथनों की पूर्ति हो जाती है। कहा गया है कि ध्यान, धारणा, बुद्धि आदि द्वारा जो वेदों का स्मरण है, यह मानसी भक्ति है जो विष्णु में प्रीति बढाने वाली है। मन्त्रवेद समुच्चार, अविश्रांत विचिंतन, जाप्य व आरण्यक वाचिकी भक्ति कहलाती है। व्रतोपवास, नियम, पंच इन्द्रियों की जय कायिकी भक्ति कहलाती है। कायिकी भक्ति में नृत्य, गीत, बलि, भक्ष्य, भोज्य, अन्नपान आदि के द्वारा की जाने वाली लौकिक भक्ति भी सम्मिलित है। स्पष्ट है कि यदि इन तीन प्रकार की भक्तियों में से एक में भी रस की गंगा बहने लगे तो पाप तो दूर हो ही जाएंगे।
गरुड १,२१३.५६( ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को दस पापों के हरण का कथन)
शोकदुःखप्रशमनं गङ्गास्नानवदाचरेत्।
अद्य हस्ते तु नक्षत्रे दशम्यां ज्येष्ठके सिते॥१,२१३.५६॥
दशपाप हरायां च अदत्वा दानकल्मषम्।
विरुद्धाचरणं हिंसा परदारोपसेवनम्॥१,२१३.५७॥
पारुष्यानृतपैशुन्यमसम्बद्धाभिभाषणम्।
परद्रव्याभिधानं च मनसानिष्टचिन्तनम्॥१,२१३.५८॥
एतद्दशाघघातार्थं गङ्गास्नानं करोम्यहम्।
नारद १.११९.८ (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी : दशहरा लग्न हेतु दश योग, दस पाप हरण से दशहरा नाम, जाह्नवी में स्नान का महत्त्व),
ज्येष्ठे शुक्लदशम्यां तु जाह्नवी सरितां वरा
समायाता धरां स्वर्गात्तस्मात्सा पुण्यदा स्मृता ७
ज्येष्ठः शुक्लदलं हस्तो बुधश्च दशमी तिथिः
गरानन्दव्यतीपाताः कन्येंदुवृषभास्कराः ८
दशयोगः समाख्यातो महापुण्यतमो द्विज
हरते दश पापानि तस्माद्दशहरः स्मृतः ९
अस्यां यो जाह्नवीं प्राप्य स्नाति संप्रीतमानसः
विधिना जाह्नवीतोये स याति हरिमन्दिरम् १०
नारद 2.40.21(गंगा अवतरण का काल)
ज्येष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलादवतरदसौ जाह्नवी मर्त्यलोकम् ।
पापान्यस्यां हरति हि तिथौ सा दशैषाद्यगङ्गा पुण्यं दद्यादपि शतगुणं वाजिमेधक्रतोश्च ॥ २,४०.२१ ॥
नारद २.४३.४२ (गङ्गा दशहरा : ज्येष्ठ शुक्ल दशमी, गङ्गा पूजा विधि),
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां हस्तसंयुते ४२
गङ्गातीरे तु पुरुषो नारी वा भक्तिभावतः
निशायां जागरं कृत्वा गङ्गां दशविधैस्ततः ४३
पुष्पैर्गन्धैश्च नैवैद्यै फलैश्च दशसङ्ख्यया
तथैव दीपैस्ताम्बूलैः पूजयेच्छ्रद्धयान्वितः ४४
स्नात्वा भक्त्या तु जाह्नव्यां दशकृत्वो विधानतः
दशप्रसृति कृष्णांश्च तिलान्सर्पिश्च वै जले ४५
सक्तुपिण्डान्गुडपिण्डान्दद्याच्च दशसङ्ख्यया
ततो गङ्गातटे रम्ये हेम्ना रूप्येण वा तथा ४६
गङ्गायाः प्रतिमां कृत्वा वक्ष्यमाणस्वरूपिणीम्
पद्मस्वस्तिकचिह्नस्य संस्थितस्य तथोपरि ४७
वस्त्रस्रग्दामकण्ठस्य पूर्णकुम्भस्य चोपरि
संस्थाप्य पूजयेद्देवीं तदलाभे मृदादि वा ४८
अथ तत्राप्यशक्तश्चेल्लिखेत्पिष्टेन वै भुवि
चतुर्भुजां सुनेत्रां च चन्द्रायुतसमप्रभाम् ४९
चामरैर्वीज्यमानां च श्वेतच्छत्रोपशोभिताम्
सुप्रसन्नां च वरदां करुणार्द्र निजान्तराम् ५०
सुधाप्लावितभूपृष्ठां देवादिभिरभिष्टुताम्
दिव्यरत्नपरीतां च दिव्यमाल्यानुलेपनाम् ५१
ध्यात्वा जले यथाप्रोक्तां तत्रार्चायां तु पूजयेत्
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण कुर्यात्पूजां विशेषतः ५२
पच्चामृतेन च स्नानमर्चायां तु विशिष्यते
प्रतिमाग्रे स्थण्डिले तु गोमयेनोपलेपयेत् ५३
नारायणं महेशं च ब्रह्माणं भास्करं तथा
भगीरथं च नृपतिं हिमवन्तं नगेश्वरम् ५४
गन्धपुष्पादिभिश्चैव यथाशक्ति प्रपूजयेत्
दशप्रस्थांस्तिलान् दद्याद्दश विप्रेभ्य एव च ५५
दशप्रस्थान्यवान् दद्याद्दश गव्यैर्यथाहितान्
मत्स्यकच्छपमण्डूकमकरादिजलेचरान् ५६
कारितान्वै यथाशक्ति स्वर्णेन रजतेन वा
तदलाभे पिष्टमयानभ्यर्च्य कुसुमादिभिः
गङ्गायां प्रक्षिपेत्पूर्व्वं मन्त्रेणैव तु मन्त्रवित् ५७
रथयात्रादिने तस्मिन्विभवे सति कारयेत्
रथारूढप्रतिकृतिं गङ्गायास्तूत्तरामुखाम् ५८
भ्रमन्त्या दर्शनं लोके दुर्लभं पापकर्मणाम्
दुर्गाया रथयात्रास्ति तथैवात्रापि कारयेत् ५९
एवं कृत्वा विधानेन वित्तशाठ्यविवर्जितः
दशपापैर्वक्ष्यमाणैः सद्य एव विमुच्यते ६०
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः
परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं स्मृतम् ६१
पारुष्यमनृतं वापि पैशुन्यं चापि सर्वशः
असम्बद्धप्रलापश्च वाचिकं स्याच्चतुर्विधम् ६२
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्
वितथाभिनिवेशश्च मानसं त्रिविधं स्मृतम् ६३
एतैर्दशविधैः पापैः कोटिजन्मसमुद्भवैः
मुच्यते नात्र सन्देहो ब्रह्मणो वचनं यथा ६४
दश त्रिंशच्च तान्पूर्वान्पितॄनेव तथापरान्
उद्धरत्येव संसारान्मन्त्रेणानेन पूजिता ६५
ॐ नमो दशहरायै नारायण्यै गङ्गायै नमः
इति मन्त्रेण यो मर्त्यो दिने तस्मिन्दिवानिशम् ६६
जपेत्पच्चसहस्राणि दशधर्मफलं लभेत्
उद्धरेद्दश पूर्वाणि पराणि च भवार्णवात् ६७
वक्ष्यमाणमिदं स्तोत्रं विधिना प्रतिगृह्य च
गङ्गाग्रे तद्दिने जप्यं विष्णुपूजां प्रवर्तयेत् ६८
ॐ नमः शिवायै गङ्गायै शिवदायै नमोऽस्तु ते
नमोऽस्तु विष्णुरूपिण्यै गङ्गायै ते नमो नमः ६९
सर्वदेवस्वरूपिण्यै नमो भेषजमूर्तये
सर्वस्य सर्वव्याधीनां भिषक्श्रेष्ठे नमोऽस्तु ते ७०
स्थाणुजङ्गमसंभूतविषहन्त्रि नमोऽस्तु ते
संसारविषनाशिन्यै जीवनायै नमो नमः ७१
तापत्रितयहन्त्र्यै च प्राणेश्वर्यै नमो नमः
शान्त्यै सन्तापहारिण्यै नमस्ते सर्वमूर्तये ७२
सर्वसंशुद्धिकारिण्यै नमः पापविमुक्तये
भुक्तिमुक्तिप्रदायिन्यै भोगवत्यै नमो नमः ७३
मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु स्वर्गदायै नमो नमः
नमस्त्रैलोक्यमूर्तायै त्रिदशायै नमो नमः ७४
नमस्ते शुक्लसंस्थायै क्षेमवत्यै नमो नमः
त्रिदशासनसंस्थायै तेजोवत्यै नमोऽस्तु ते ७५
मंदायै लिङ्गधारिण्यै नारायण्यै नमो नमः
नमस्ते विश्वमित्रायै रेवत्यै ते नमो नमः ७६
बृहत्यै ते नमो नित्यं लोकधात्र्यै नमो नमः
नमस्ते विश्वमुख्यायै नन्दिन्यै ते नमो नमः ७७
पृथ्व्यै शिवामृतायै च विरजायै नमो नमः
परावरगताद्यायै तारायै ते नमो नमः ७८
नमस्ते स्वर्गसंस्थायै अभिन्नायै नमो नमः
शान्तायै ते प्रतिष्ठायै वरदायै नमो नमः ७९
उग्रायै मुखजल्पायै सञ्जीविन्यै नमो नमः
ब्रह्मगायै ब्रह्मदायै दुरितघ्न्यै नमो नमः ८०
प्रणतार्तिप्रभञ्जिन्यै जगन्मात्रे नमो नमः
विलुषायै दुर्गहन्त्र्यै दक्षायै ते नमो नमः ८१
सर्वापत्प्रतिपक्षायै मङ्गलायै नमो नमः
परापरे परे तुभ्यं नमो मोक्षप्रदे सदा
गङ्गा ममाग्रतो भूयाद्गङ्गा मे पार्श्वयोस्तथा ८२
गङ्गा मे सर्वतो भूयात्त्वयि गंगेऽस्तु मे स्थितिः
आदौ त्वमन्ते मध्ये च सर्वा त्वं गाङ्गते शिवे ८३
त्वमेव मूलप्रकृतिस्त्वं हि नारायणः प्रभुः
गंगे त्वं परमात्मा च शिवस्तुभ्यं नमो नमः ८४
इतीदं पठति स्तोत्रं नित्यं भक्तिपरस्तु यः
शृणोति श्रद्धया वापि कायवाचिकसम्भवैः ८५
दशधा संस्थितैर्दोषैः सर्वैरेव प्रमुच्यते
रोगी प्रमुच्यते रोगान्मुच्येतापन्न आपदः ८६
द्विषद्भ्यो बन्धनाच्चापि भयेभ्यश्च विमुच्यते
सर्वान्कामानवाप्नोति प्रेत्य ब्रह्मणि लीयते ८७
इदं स्तोत्रं गृहे यस्य लिखितं परिपूज्यते
नाग्निचौरभयं तत्र पापेभ्योऽपि भयं नहि ८८
तस्यां दशम्यामेतच्च स्तोत्रं गङ्गाजले स्थितः
जपंस्तु दशकृत्वश्च दरिद्रो वापि चाक्षमः ८९
सोऽपि तत्फलमाप्नोति गङ्गां सम्पूज्य भक्तितः
पूर्वोक्तेन विधानेन फलं यत्परिकीर्तितम् ९०
यथा गौरी तथा गङ्गा तस्माद्गौर्यास्तु पूजने
विधिर्यो विहितः सम्यक्सोऽपि गङ्गाप्रपूजने ९१
यथा शिवस्तथा विष्णुर्यथा विष्णुस्तथा ह्युमा
उमा यथा तथा गङ्गा चात्र भेदो न विद्यते ९२
विष्णुरुद्रान्तरं यश्च गङ्गागौर्यन्तरं तथा
लक्ष्मीगौर्यन्तरं यश्च प्रब्रूते मूढधीस्तु सः ९३
शुक्लपक्षे दिवा भूमौ गङ्गायामुत्तरायणे
धन्या देहं विमुञ्चति हृदयस्थे जनार्दने ९४
ये मुञ्चंति नराः प्राणान् गङ्गायां विधिनन्दिनि
ते विष्णुलोकं गच्छंति स्तूयमाना दिविस्थितैः ९५
अर्द्धोदकेन जाह्नव्यां म्रियतेऽनशनेन यः
स याति न पुनर्जन्म ब्रह्मसायुज्यमेति च ९६
या गतिर्योगयुक्तस्य सात्विकस्य मनीषिणः
सा गतिस्त्यजतः प्राणान् गङ्गायां तु शरीरिणः ९७
अनशनं गृहीत्वा यो गङ्गातीरे मृतो नरः
सत्यमेव परं लोकमाप्नोति पितृभिः सह ९८
गङ्गायां मरणात्प्राणान्यः प्राज्ञस्त्यक्तुमिच्छति
गतानि बहुजन्मानि यत्र यत्र मृतानि च ९९
महाँश्चापि गतः कालो यत्र तत्रापि गच्छतः
अत्र दूरे समीपे च सदृशं योजनद्वयम् १००
गङ्गायां मरणेनेह नात्र कार्या विचारणा
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि कामतोऽकामतोऽपि वा १०१
गङ्गायां तु मृतो मर्त्यः स्वर्गं मोक्षं च विन्दति
प्राणेषूत्सृज्यमानेषु यो गङ्गां संस्मरेन्नरः १०२
स्पृशेद्वा पाप शीलोऽपि स वै याति परां गतिम् १०३
गङ्गां गत्वा यैः शरीरं विसृष्टं प्राप्ता धीरास्ते तु देवैः समत्वम्
तस्मात्सर्वान्प्रोह्य मुक्तिप्रदान्वै सेवेद्गङ्गामाशरीरस्य पातम् १०४
अन्तरिक्षे क्षितौ तोये पापीयानपि यो मृतः
ब्रह्मविष्णुशिवैः पूज्यं पदमक्षय्यमश्नुते १०५
यो धर्मिष्ठश्च सप्राणः प्रयतः शिष्टसम्मतः
चिन्तयेन्मनसा गङ्गां स गतिं परमां लभेत् १०६
यत्र तत्र मृतो वापि मरणे समुपस्थिते
भक्त्या गङ्गां स्मरन्याति शैवं वा वैष्णवं पुरम् १०७
शम्भोर्जटाकलापात्तु विनिष्क्रान्तातिकर्कशात्
प्लावयित्वा दिवं निन्ये या पापान्सगरात्मजान् १०८
यावन्त्यस्थीनि गङ्गायां तिष्ठंति पुरुषस्य वै
तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते १०९
गङ्गातोये तु यस्यास्थि नीत्वा प्रक्षिप्यते नरैः
तत्कालमादितः कृत्वा स्वर्गलोके भवेत्स्थितिः ११०
गङ्गातोये तु यस्यास्थि प्राप्यते शुभकर्मणः
न तस्य पुनरावृत्तिर्ब्रह्मलोकात्कथञ्चन १११
दशाहाभ्यन्तरे यस्य गङ्गातोयेऽस्थि सङ्गतम्
गङ्गायां मरणे यादृक्तादृक्फलमवाप्नुयात् ११२
स्नात्वा ततः पञ्चगव्येन सिक्त्वा हिरण्यमध्वाज्यतिलैर्नियोज्य
तदस्थिपिण्डं पुटके निधाय पश्यन् दिशं प्रेतगणोपगूढाम् ११३
नमोऽस्तु धर्माय वदन्प्रविश्य जलं स मे प्रीत इति क्षिपेच्च
स्नात्वा ततस्तीर्थवटाक्षयं च दृष्ट्वा प्रदद्यादथ दक्षिणां तु ११४
एवं कृत्वा प्रेतपुरे स्थितस्य स्वर्गे गतिः स्यात्तु महेन्द्र तुल्या ११५
प्रवाहमवधिं कृत्वा यावद्धस्तचतुष्टयम्
तत्र नारायणः स्वामी नान्यः स्वामी कदाचन ११६
न तत्र प्रतिगृह्णीयात्प्राणैः कण्ठगतैरपि
भाद्र शुक्लचतुर्दश्यां यावदाक्रमते जलम् ११७
तावद्गर्भं विजानीयात्तद्दूरं तीरमुच्यते
सार्द्धहस्तशतं यावद्गर्भस्तीरं ततः परम् ११८
इति केषां मतं देवि श्रुतिस्मृतिषु सम्मतम्
तीराद्गव्यूतिमात्रं तु परितः क्षेत्रमुच्यते ११९
तीरं त्यक्त्वा वसेत्क्षेत्रे तीरे वासो न चेष्यते
एकयोजनविस्तीर्णा क्षेत्रसीमा तटद्वयात् १२०
गङ्गासीमां न लङ्घन्ति पापान्यप्यखिलान्यपि
तां तु दृष्ट्वा पलायंते यथा सिंहं वनौकसः १२१
यत्र गङ्गा महाभागे रामशम्भुतपोवनम्
सिद्धक्षेत्रं तु तज्ज्ञेयं समन्तात्तु त्रियोजनम् १२२
तीर्थे न प्रतिगृह्णीयात्पुण्येष्वायतनेषु च
निमित्तेषु च सर्वेषु तन्निवृत्तो भवेन्नरः १२३
तीर्थे यः प्रतिगृह्णाति पुण्येष्वायतनेषु च
निष्फलं तस्य तत्तीर्थं यावत्तद्धनमुच्यते १२४
गङ्गाविक्रयणाद्देवि विष्णोर्विक्रयणं भवेत्
जनार्दने तु विक्रीते विक्रीतं भुवनत्रयम् १२५
गङ्गातीरसमुद्भूतां मृदं मूर्ध्ना बिभर्ति यः
बिभर्ति रूपं सोऽकस्य तमोनाशाय केवलम् १२६
गङ्गापुलिनजां धूलिमास्तीर्याथ निजान् पितॄन्
प्रीणयन्यो नरः पिण्डान्दद्यात्तान् स्वर्नयेदपि १२७
इदं तेऽभिहितं भद्रे गङ्गामाहात्म्यमुत्तमम्
पठन् शृण्वन्नरो ह्येति तद्विष्णोः परमं पदम् १२८
नित्यं जप्यमिदं भक्त्या प्रयतैः श्रद्धयान्वितैः
वैष्णवीं गतिमिच्छद्भिः शैवीं वा विधिनन्दिनि १२९
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणोत्तरभागे मोहिनीवसुसंवादे
गङ्गामाहात्म्ये पूजादिकथनं नाम त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः
४३
पद्म ५.८५.४(मानसिक, वाचिक व कायिक भक्तियों का कथन),
विविधा भक्तिरुद्दिष्टा मनोवाक्कायसंभवा ४
लौकिकी वैदिकी चापि भवेदाध्यात्मिकी तथा
ध्यानधारणया बुद्ध्या वेदानां स्मरणं हि यत् ५
विष्णुप्रीतिकरी चैषा मानसी भक्तिरुच्यते
मंत्रवेदसमुच्चारैरविश्रांत विचिंतनैः ६
जाप्यैश्चारण्यकैश्चैव वाचिकी भक्तिरुच्यते
व्रतोपवासनियमैः पञ्चेंद्रियजयेन च ७
कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिः सर्वार्थसाधिनी
भूषणैर्हेमरत्नांकैश्चित्राभिर्वाग्भिरेव च ८
वासः प्रतिसरैः सूत्रैः पावकव्यजनोच्छ्रितैः
नृत्यवादित्रगीतैश्च सर्वबल्युपहारकैः ९
भक्ष्यभोज्यान्नपानैश्च या पूजा क्रियते नरैः
नारायणंसमुद्दिश्य भक्तिः सा लौकिकी मता १०
कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिःसर्वार्थसाधिकी
ब्रह्म १.६०.१२(ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को तीर्थ आदि के पुरुषोत्तम क्षेत्र को जाने का कथन)
पृथिव्यां यानि तीर्थानि सरितश्च सरांसि च।
पुष्करिण्यस्तडागानि वाप्यः कूपास्तथा ह्रदाः॥ ६३.१२॥
नानानद्यः समुद्राश्च सप्ताहं पुरुषोत्तमे।
ज्येष्ठशुक्लदशम्यादि प्रत्यक्षं यान्ति सर्वदा॥ ६३.१३॥
स्नानदानादिकं तस्माद्देवताप्रेक्षणं द्विजाः।
यत्किंचित्क्रियते तत्र तस्मिन् कालेऽक्षयं भवेत्॥ ६३.१४॥
शुक्लपक्षस्य दशमी ज्येष्ठे मासि द्विजोत्तमाः।
हरते दश पापानि तस्माद्दशहरा स्मृता॥ ६३.१५॥
यस्तस्यां हलिनं कृष्णं पश्येद्भद्रां सुसंयतः।
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं व्रजेन्नरः॥ ६३.१६॥
स्कन्द ४.१.२७.१३५ (गङ्गा दशहरा स्तोत्र व माहात्म्य),
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां हस्तसंयुते ।। गंगातीरे तु पुरुषो नारी वा भक्तिभावतः ।।. १३५ ।। निशायां जागरं कुयाद्गंगां दशविधैर्हरे ।। पुष्पैः सुगंधैर्नैवेद्यैः फलैर्दशदशोन्मितैः ।।३६।। प्रदीपैर्दशभिर्धूपैर्दशांगैर्गरुडध्वजं ।। पूजयेच्छ्रद्धया धीमान्दशकृत्वो विधानतः ।। ३७ ।। साज्यांस्तिलान्क्षिपेत्तोये गंगायाः प्रसृतीर्दश ।। गुडसक्तुमयान्पिंडान्दद्याच्च दशमंत्रतः ।। ३८ ।। नमः शिवायै प्रथमं नारायण्यै पदं ततः ।। दशहरायै पदमिति गंगायै मंत्र एष वै ।। ३९ ।। स्वाहांतः प्रणावादिश्च भवेद्विंशाक्षरो मनुः ।। पूजादानं जपो होमो ऽनेनैव मनुना स्मृतः ।। 4.1.27.१४० ।। हेम्ना रूप्येण वा शक्त्या गंगामूर्तिं विधाय च ।। वस्त्राच्छादितवक्त्रस्य पूर्णकुंभस्य चोपरि ।। ४१ ।। प्रतिष्ठाप्यार्चयेद्देवीं पंचामृतविशोधिताम् ।। चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च नदीनदनिषेविताम् ।। ४२ ।। लावण्यामृतनिष्पंद संशीलद्गात्रयष्टिकाम् ।। पूर्णकुंभसितांभोज वरदाभयसत्कराम् ।। ४३ ।। ततो ध्यायेत्सुसौम्या च चंद्रायुतसमप्रभाम् ।। चामरैर्वीज्यमानां च श्वेतच्छत्रोपशोभिताम ।। ४४ ।। सुधाप्लावितभूपृष्ठां दिव्यगंधानुलेपनाम् ।। त्रैलौक्यपूजितपदां देवर्षिभिरभिष्टुताम् ।। ४५ ।। ध्यात्वा समर्च्य मंत्रेण धूपदीपोपहारतः ।। मां च त्वां च विधिं ब्रध्नं हिमवंतं भगीरथम् ।। ४६ ।। प्रतिमाग्रे समभ्यर्च्य चंदनाक्षतनिर्मितान् ।। दशप्रस्थतिलान्दद्याद्दशविप्रेभ्य आदरात् ।। ४७ ।। पलं च कुडवः प्रस्थ आढको द्रोण एव च ।। धान्यमानेन बोद्धव्याः क्रमशोमीचतुर्गुणाः ।। ४८ ।। मत्स्य कच्छप मंडूक मकरादि जलेचरान् ।। हंसकारंडव बक चक्रटिट्टिभसारसान् ।। ४९ ।। यथाशक्ति स्वर्णरूप्य ताम्रपृष्ठविनिर्मितान् ।। अभ्यर्च्य गंधकुसुमैर्गंगायां प्रक्षिपेद्व्रती ।। 4.1.27.१५० ।। एवं कृत्वा विधानेन वित्तशाठ्यं विवर्जितः ।। उपवासीवक्ष्यमाणैर्दशपापैः प्रमुच्यते ।। ५१ ।।
स्कन्द ४.१.२७.१५६ ( गङ्गा दशहरा स्तोत्र का कथन )
अदत्तानामुपादानं हिंसाचैवाविधानतः ।। परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं स्मृतम् ।। ५२ ।। पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चैव सर्वशः ।। असंबद्ध प्रलापश्च वाङ्मयंस्याच्चतुर्विधम् ।। ५३ ।। परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिंतनम् ।। वितथाभिनिवेशश्च मानसं त्रिविधं स्मृतम् ।। ।। ५४ ।। एतैर्दशविधैः पापैर्दशजन्मसमुद्भवैः ।। मुच्यते नात्र संदेहः सत्यं सत्यं गदाधर ।। ५५ ।। उत्तरेन्नरकात्पूर्वान्दश घोराद्दशावरान् ।।वक्ष्यमाणमिदं स्तोत्रं गंगाग्रे श्रद्धया जपेत् ।। ५६ ।। ॐ नमः शिवायै गंगायै शिवदायै नमोनमः ।। नमस्ते विष्णुरूपिण्यै ब्रह्ममूर्त्त्यै नमोस्तु ते ।। ५७ ।। नमस्ते रुद्ररूपिण्यै शांकर्यै ते नमोनमः ।। सर्वदेवस्वरूपिण्यै नमो भेषजमूर्त्तये ।। ५८ ।। सर्वस्यसर्वव्याधीनां भिषक्श्रेष्ठ्यै नमोस्तु ते ।। स्थास्नुजंगमसंभूत विषहंत्र्यै नमोस्तु ते ।। ५९ ।। संसारविषनाशिन्यै जीवनायै नमोस्तु ते ।। तापत्रितय संहंत्र्यै प्राणेश्यै ते नमोनमः ।। 4.1.27.१६० ।। शांति संतानकारिण्यै नमस्ते शुद्धमूर्तये ।। सर्वसंशुद्धिकारिण्यै नमः पापारिमूर्तये ।।६१।। भुक्तिमुक्तिप्रदायिन्यै भद्रदायै नमोनमः ।। भोगोपभोगदायिन्यै भोगवत्यै नमोस्तु ते ।। ६२ ।। मंदाकिन्यै नमस्तेस्तु स्वर्गदायै नमोनमः ।। नमस्त्रैलोक्यभूपायै त्रिपथायै नमोनमः ।। ६३ ।। नमस्त्रिशुक्लसंस्थायै क्षमावत्यै नमोनमः ।। त्रिहुताशनसंस्थायै तेजोवत्यै नमोनमः ।। ६४ ।। नंदायै लिंगधारिण्यै सुधाधारात्मने नमः ।। नमस्ते विश्वमुख्यायै रेवत्यै ते नमोनमः ।। ६५ ।। बृहत्यै ते नमस्तेस्तु लोकधात्र्यै नमोस्तु ते ।। नमस्ते विश्वमित्रायै नंदिन्यै ते नमोनमः ।। ६६ ।। पृथ्व्यै शिवामृतायै च सुवृषायै नमोनमः ।। परापरशताढ्यायै तारायै ते नमोनमः ।। ६७ ।। पाशजालनिकृंतिन्यै अभिन्नायै नमोस्तु ते ।। शांतायै च वरिष्ठायै वरदायै नमोनमः ।।६८।। उग्रायै सुखजग्ध्यै च संजीविन्यै नमोस्तु ते ।। ब्रह्मिष्ठायै ब्रह्मदायै दुरितघ्न्यै नमोनमः ।। ६९ ।। प्रणतार्ति प्रभंजिन्यै जगन्मात्रे नमोस्तुते ।। सर्वापत्प्रतिपक्षायै मंगलायै नमोनमः ।। 4.1.27.१७० ।। शरणागतदीनार्त परित्राणपरायणे ।। सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ।। ७१ ।। निर्लेपायै दुर्गहंत्र्यै दक्षायै ते नमोनमः ।। परापरपरायै च गंगे निर्वाणदायिनि ।। ७२ ।। गंगे ममाग्रतो भूया गंगे मे तिष्ठ पृष्ठतः ।। गंगे मे पार्श्वयोरेधि गंगे त्वय्यस्तु मे स्थितिः ।। ७३ । । आदौ त्वमंते मध्ये च सर्वं त्वं गां गते शिवे ।। त्वमेव मूलप्रकृतिस्त्वं पुमान्पर एव हि ।। गंगे त्वं परमात्मा च शिवस्वतुभ्यं नमः शिवे ।। ७४ ।। य इदं पठते स्तोत्रं शृणुयाच्छ्रद्धयापि यः ।। दशधा मुच्यते पापैः कायवाक्चित्तसंभवैः ।। ।। ७५ ।। रोगस्थो रोगतो मुच्येद्विपद्भ्यश्च विपद्युतः ।। मुच्यते बंधनाद्बद्धो भीतो भीतः प्रमुच्यते ।। ७६ ।। सर्वान्कामानवाप्नोति प्रेत्य च त्रिदिवं व्रजेत् ।। दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यस्त्रीपरिवीजितः ।। ७७ ।। गृहेपि लिखितं यस्य सदा तिष्ठति धारितम ।। नाग्निचोरभयं तस्य न सर्पादि भयं क्वचित ।। ७८ ।। ज्येष्ठे मासे सिते पक्षे दशमी हस्तसंयुता ।। संहरेत्त्रिविधं पापं बुधवारेण संयुता ।। ७९ ।। तस्यां दशम्यामेतच्च स्तोत्रं गंगाजले स्थितः ।। यः पठेद्दशकृत्वस्तु दरिद्रो वापि चाक्षमः ।। 4.1.27.१८० । । सोपि तत्फलमाप्नोति गंगां संपूज्य यत्नतः ।। पूर्वोक्तेन विधानेन यत्फलं संप्रकीर्तितम ।। ८३ ।। यथा गौरी तथा गंगा तस्माद्गौर्यास्तु पूजने ।। यो विधिर्विहितः सम्यक्सोपि गंगाप्रपूजने ।। ८२ ।। यथाऽहंत्वं तथा विष्णो यथा त्वं तु तथाह्युमा ।। उमा यथा तथा गंगा चतूरूपं न भिद्यते ।। ८३ ।। विष्णुरुद्रांतरं चैव श्रीगौर्योरंतरं तथा ।। गंगागौर्यंतरं चैव यो ब्रूते मूढधीस्तु सः ।। ८४ ।। इति श्रीस्कांदे महापुराणे एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थे काशीखंडे पूर्वार्द्धे गंगामहिमवर्णनपूर्वक दशहरा स्तोत्रकथनंनाम सप्तविंशतितमोऽध्यायः ।। २७ ।।
४.२.५२.९० (दशहरा तिथि को दशाश्वमेध तीर्थ में स्नान का माहात्म्य), लक्ष्मीनारायण १.२७५.५(ज्येष्ठ शुक्ल दशमी का गङ्गा दशहरा नाम ) । dashahara
संदर्भ
१,००५.०६ त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः ।
१,००५.०६ इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो ॥
१,०२३.०८ इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः ।
१,०२३.०८ विश्वे मम श्रुता हवम् ॥
१,०८४.०४ इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम् ।
१,०८४.०४ शुक्रस्य त्वाभ्यक्षरन्धारा ऋतस्य सादने ॥
१,०८४.०५ इन्द्राय नूनमर्चतोक्थानि च ब्रवीतन ।
१,०८४.०५ सुता अमत्सुरिन्दवो ज्येष्ठं नमस्यता सहः ॥
१,१२७.०२ यजिष्ठं त्वा यजमाना हुवेम ज्येष्ठमङ्गिरसां विप्र मन्मभिर्विप्रेभिः शुक्र मन्मभिः ।
१,१२७.०२ परिज्मानमिव द्यां होतारं चर्षणीनाम् ।
१,१२७.०२ शोचिष्केशं वृषणं यमिमा विशः प्रावन्तु जूतये विशः ॥
२,०१६.०१ प्र वः सतां ज्येष्ठतमाय सुष्टुतिमग्नाविव समिधाने हविर्भरे ।
२,०१६.०१ इन्द्रमजुर्यं जरयन्तमुक्षितं सनाद्युवानमवसे हवामहे ॥
२,०२३.०१ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।
२,०२३.०१ ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ॥
२,०४१.१५ इन्द्रज्येष्ठा मरुद्गणा देवासः पूषरातयः ।
२,०४१.१५ विश्वे मम श्रुता हवम् ॥
३,०५०.०३ गोभिर्मिमिक्षुं दधिरे सुपारमिन्द्रं ज्यैष्ठ्याय धायसे गृणानाः ।
३,०५०.०३ मन्दानः सोमं पपिवां ऋजीषिन्समस्मभ्यं पुरुधा गा इषण्य ॥
४,०२२.०९ अस्मे वर्षिष्ठा कृणुहि ज्येष्ठा नृम्णानि सत्रा सहुरे सहांसि ।
४,०२२.०९ अस्मभ्यं वृत्रा सुहनानि रन्धि जहि वधर्वनुषो मर्त्यस्य ॥
४,०३३.०४ यत्संवत्समृभवो गामरक्षन्यत्संवत्समृभवो मा अपिंशन् ।
४,०३३.०४ यत्संवत्समभरन्भासो अस्यास्ताभिः शमीभिरमृतत्वमाशुः ॥
४,०३३.०५ ज्येष्ठ आह चमसा द्वा करेति कनीयान्त्रीन्कृणवामेत्याह ।
४,०३३.०५ कनिष्ठ आह चतुरस्करेति त्वष्ट ऋभवस्तत्पनयद्वचो वः ॥
४,०५४.०५ इन्द्रज्येष्ठान्बृहद्भ्यः पर्वतेभ्यः क्षयां एभ्यः सुवसि पस्त्यावतः ।
४,०५४.०५ यथायथा पतयन्तो वियेमिर एवैव तस्थुः सवितः सवाय ते ॥
५,०४४.०१ तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम् ।
५,०४४.०१ प्रतीचीनं वृजनं दोहसे गिराशुं जयन्तमनु यासु वर्धसे ॥
५,०५९.०६ ते अज्येष्ठा अकनिष्ठास उद्भिदोऽमध्यमासो महसा वि वावृधुः ।
५,०५९.०६ सुजातासो जनुषा पृश्निमातरो दिवो मर्या आ नो अच्छा जिगातन ॥
५,०६०.०५ अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।
५,०६०.०५ युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः ॥
५,०८७.०९ गन्ता नो यज्ञं यज्ञियाः सुशमि श्रोता हवमरक्ष एवयामरुत् ।
५,०८७.०९ ज्येष्ठासो न पर्वतासो व्योमनि यूयं तस्य प्रचेतसः स्यात दुर्धर्तवो निदः ॥
६,०५१.१५ यूयं हि ष्ठा सुदानव इन्द्रज्येष्ठा अभिद्यवः ।
६,०५१.१५ कर्ता नो अध्वन्ना सुगं गोपा अमा ॥
६,०६७.०१ विश्वेषां वः सतां ज्येष्ठतमा गीर्भिर्मित्रावरुणा वावृधध्यै ।
६,०६७.०१ सं या रश्मेव यमतुर्यमिष्ठा द्वा जनां असमा बाहुभिः स्वैः ॥
७,०११.०५ आग्ने वह हविरद्याय देवानिन्द्रज्येष्ठास इह मादयन्ताम् ।
७,०११.०५ इमं यज्ञं दिवि देवेषु धेहि यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥
७,०४९.०१ समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः ।
७,०४९.०१ इन्द्रो या वज्री वृषभो रराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु ॥
८,००२.२३ ज्येष्ठेन सोतरिन्द्राय सोमं वीराय शक्राय ।
८,००२.२३ भरा पिबन्नर्याय ॥
ज्येष्ठेन मुख्येनैन्द्रवायवग्रहेण। स हि धाराग्रहाणां मध्ये ज्येष्ठः - सायण
८,०१६.०३ तं सुष्टुत्या विवासे ज्येष्ठराजं भरे कृत्नुम् ।
८,०१६.०३ महो वाजिनं सनिभ्यः ॥
ज्येष्ठराजं ज्येष्ठेषु प्रशस्यतमेषु देवेषु मध्ये राजमानम्
८,०२३.२३ आभिर्विधेमाग्नये ज्येष्ठाभिर्व्यश्ववत् ।
८,०२३.२३ मंहिष्ठाभिर्मतिभिः शुक्रशोचिषे ॥
८,०६३.१२ अस्मे रुद्रा मेहना पर्वतासो वृत्रहत्ये भरहूतौ सजोषाः ।
८,०६३.१२ यः शंसते स्तुवते धायि पज्र इन्द्रज्येष्ठा अस्मां अवन्तु देवाः ॥
८,०७४.०४ आगन्म वृत्रहन्तमं ज्येष्ठमग्निमानवम् ।
८,०७४.०४ यस्य श्रुतर्वा बृहन्नार्क्षो अनीक एधते ॥
८,०८३.०९ यूयं हि ष्ठा सुदानव इन्द्रज्येष्ठा अभिद्यवः ।
८,०८३.०९ अधा चिद्व उत ब्रुवे ॥
९,०६६.१६ महां असि सोम ज्येष्ठ उग्राणामिन्द ओजिष्ठः ।
९,०६६.१६ युध्वा सञ्छश्वज्जिगेथ ॥
१०,००३.०५ स्वना न यस्य भामासः पवन्ते रोचमानस्य बृहतः सुदिवः ।
१०,००३.०५ ज्येष्ठेभिर्यस्तेजिष्ठैः क्रीळुमद्भिर्वर्षिष्ठेभिर्भानुभिर्नक्षति द्याम् ॥(दे.अग्निः)
१०,००६.०१ अयं स यस्य शर्मन्नवोभिरग्नेरेधते जरिताभिष्टौ ।
१०,००६.०१ ज्येष्ठेभिर्यो भानुभिर्ऋषूणां पर्येति परिवीतो विभावा ॥
१०,०११.०२ रपद्गन्धर्वीरप्या च योषणा नदस्य नादे परि पातु मे मनः ।
१०,०११.०२ इष्टस्य मध्ये अदितिर्नि धातु नो भ्राता नो ज्येष्ठः प्रथमो वि वोचति ॥
१०,०५०.०४ भुवस्त्वमिन्द्र ब्रह्मणा महान्भुवो विश्वेषु सवनेषु यज्ञियः ।
१०,०५०.०४ भुवो नॄंश्च्यौत्नो विश्वस्मिन्भरे ज्येष्ठश्च मन्त्रो विश्वचर्षणे ॥
१०,०६६.०१ देवान्हुवे बृहच्छ्रवसः स्वस्तये ज्योतिष्कृतो अध्वरस्य प्रचेतसः ।
१०,०६६.०१ ये वावृधुः प्रतरं विश्ववेदस इन्द्रज्येष्ठासो अमृता ऋतावृधः ॥
१०,०७८.०२ अग्निर्न ये भ्राजसा रुक्मवक्षसो वातासो न स्वयुजः सद्यऊतयः ।
१०,०७८.०२ प्रज्ञातारो न ज्येष्ठाः सुनीतयः सुशर्माणो न सोमा ऋतं यते ॥
१०,०७८.०५ अश्वासो न ये ज्येष्ठास आशवो दिधिषवो न रथ्यः सुदानवः ।
१०,०७८.०५ आपो न निम्नैरुदभिर्जिगत्नवो विश्वरूपा अङ्गिरसो न सामभिः ॥
१०,१२४.०८ ता अस्य ज्येष्ठमिन्द्रियं सचन्ते ता ईमा क्षेति स्वधया मदन्तीः ।
१०,१२४.०८ ता ईं विशो न राजानं वृणाना बीभत्सुवो अप वृत्रादतिष्ठन् ॥
(३.१९.६ ) पृथग्घोषा उलुलयः केतुमन्त उदीरताम् ।
(३.१९.६ ) देवा इन्द्रज्येष्ठा मरुतो यन्तु सेनया ॥६॥
(६.३९.१ ) यशो हविर्वर्धतामिन्द्रजूतं सहस्रवीर्यं सुभृतं सहस्कृतम् ।
(६.३९.१ ) प्रसर्स्राणमनु दीर्घाय चक्षसे हविष्मन्तं मा वर्धय ज्येष्ठतातये ॥१॥
ज्येष्ठतातये – सर्वश्रैष्ठ्याय - सायण
(६.११०.२ ) ज्येष्ठघ्न्यां जातो विचृतोर्यमस्य मूलबर्हणात्परि पाह्येनम् ।
(६.११०.२ ) अत्येनं नेषद्दुरितानि विश्वा दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥२॥
(९.२.८ ) इदमाज्यं घृतवज्जुषाणाः कामज्येष्ठा इह मादयध्वम् ।
(९.२.८ ) कृण्वन्तो मह्यमसपत्नमेव ॥८॥
(१०.७.२४ ) यत्र देवा ब्रह्मविदो ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते ।
(१०.७.२४ ) यो वै तान् विद्यात्प्रत्यक्षं स ब्रह्मा वेदिता स्यात्॥२४॥
(१०.७.३२ ) यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् ।
(१०.७.३२ ) दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३२॥
(१०.७.३३ ) यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः ।
(१०.७.३३ ) अग्निं यश्चक्र आस्यं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३३॥
(१०.७.३४ ) यस्य वातः प्राणापानौ चक्षुरङ्गिरसोऽभवन् ।
(१०.७.३४ ) दिशो यश्चक्रे प्रज्ञानीस्तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३४॥
(१०.७.३६ ) यः श्रमात्तपसो जातो लोकान्त्सर्वान्त्समानशे ।
(१०.७.३६ ) सोमं यश्चक्रे केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥३६॥
(१०.८.१ ) यो भूतं च भव्यं च सर्वं यश्चाधितिष्ठति ।
(१०.८.१ ) स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥१॥
(१०.८.१९ ) सत्येनोर्ध्वस्तपति ब्रह्मणार्वाङ्वि पश्यति ।
(१०.८.१९ ) प्राणेन तिर्यङ्प्राणति यस्मिन् ज्येष्ठमधि श्रितम् ॥१९॥
(१०.८.२० ) यो वै ते विद्यादरणी याभ्यां निर्मथ्यते वसु ।
(१०.८.२० ) स विद्वान् ज्येष्ठं मन्येत स विद्याद्ब्राह्मणं महत्॥२०॥ {२७}
(१०.८.२८ ) उतैषां पितोत वा पुत्र एषामुतैषां ज्येष्ठ उत वा कनिष्ठः ।
(१०.८.२८ ) एको ह देवो मनसि प्रविष्टः प्रथमो जातः स उ गर्भे अन्तः ॥२८॥
(११.३.३२[४.१]अ) ततश्चैनमन्येन शीर्ष्णा प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन् ।
(११.३.३२[४.१]ब्) ज्येष्ठतस्ते प्रजा मरिष्यतीत्येनमाह ।
(११.३.३२[४.१]च्) तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम् ।
(११.३.३२[४.१]द्) बृहस्पतिना शीर्ष्णा ।
(११.३.३२[४.१]ए) तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम् ।
(११.३.३२[४.१]f) एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः ।
(११.३.३२[४.१]ग्) सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥३२॥ [१]
(११.८[१०].१ ) यन् मन्युर्जायामावहत्संकल्पस्य गृहादधि ।
(११.८[१०].१ ) क आसं जन्याः के वराः क उ ज्येष्ठवरोऽभवत्॥१॥
(११.८[१०].२ ) तपश्चैवास्तां कर्म चान्तर्महत्यर्णवे ।
(११.८[१०].२ ) त आसं जन्यास्ते वरा ब्रह्म ज्येष्ठवरोऽभवत्॥२॥
(११.८[१०].५ ) अजाता आसन्न् ऋतवोऽथो धाता बृहस्पतिः ।
(११.८[१०].५ ) इन्द्राग्नी अश्विना तर्हि कं ते ज्येष्ठमुपासत ॥५॥
(११.८[१०].६ ) तपश्चैवास्तां कर्म चान्तर्महत्यर्णवे ।
(११.८[१०].६ ) तपो ह जज्ञे कर्मणस्तत्ते ज्येष्ठमुपासत ॥६॥
(१२.२.३५ ) द्विभागधनमादाय प्र क्षिणात्यवर्त्या ।
(१२.२.३५ ) अग्निः पुत्रस्य ज्येष्ठस्य यः क्रव्यादनिराहितः ॥३५॥
(१९.७.३ ) पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु ।
(१९.७.३ ) राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥३॥
(१९.२२.२१ ) ब्रह्मज्येष्ठा सम्भृता विर्याणि ब्रह्माग्रे ज्येष्ठं दिवमा ततान ।
(१९.२२.२१ ) भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः ॥२१॥
(१९.२३.३० ) ब्रह्मज्येष्ठा संभृता वीर्याणि ब्रह्माग्रे ज्येष्ठं दिवमा ततान ।
(१९.२३.३० ) भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः ॥३०॥
(२०.४४.३ ) तं सुष्टुत्या विवासे ज्येष्ठराजं भरे कृत्नुम् ।
(२०.४४.३ ) महो वाजिनं सनिभ्यः ॥३॥
1.4.8 अनुवाक 8 शुक्रग्रहः
VERSE: 1
अयं वेनश् चोदयत् पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने । इमम् अपाम्̇ संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥
उपयामगृहीतो ऽसि शण्डाय त्वैष ते योनिर् वीरताम् पाहि ॥ - तै.सं.
1.4.9 अनुवाक 9 मन्थिग्रहः
VERSE: 1
तम् प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिम् बर्हिषदम्̇ सुवर्विदम् । प्रतीचीनं वृजनं दोहसे गिराऽऽशुं जयन्तम् अनु यासु वर्धसे ॥
उपयामगृहीतो ऽसि मर्काय त्वैष ते योनिः प्रजाः पाहि ॥
2.3.14.3
गणानां त्वा गणपतिम्̇ हवामहे कविं कवीनाम् उपमश्रवस्तमम् । ज्येष्ठराजम् ब्रह्मणाम् ब्रह्मणस् पत आ नः शृण्वन्न् ऊतिभिः सीद सादनम् ॥
2.5.2
ब्रह्मवादिनो वदन्ति
किंदेवत्यम् पौर्णमासम् इति
प्राजापत्यम् इति ब्रूयात्
तेनेन्द्रं ज्येष्ठम् पुत्रं निरवासाययद् इति
तस्माज् ज्येष्ठम् पुत्रं धनेन निरवसाययन्ति ॥
2.5.12
अपां नपाद् आ ह्य् अस्थाद् उपस्थं जिह्मानामूर्ध्वो विद्युतं वसानः । तस्य ज्येष्ठम् महिमानं वहन्तीर् हिरण्यवर्णाः परि यन्ति यह्वीः
3.4.8
यो ज्येष्ठबन्धुर् अपभूतः स्यात् तम्̇ स्थले ऽवसाय्य ब्रह्मौदनं चतुःशरावम् पक्त्वा तस्मै होतव्या वर्ष्म वै राष्ट्रभृतो वर्ष्म स्थलं वर्ष्मणैवैनं वर्ष्म समानानां गमयति चतुःशरावो
3.4.11
प्र ससाहिषे पुरुहूत शत्रूञ् ज्येष्ठस् ते शुष्म इह रातिर् अस्तु । इन्द्राऽऽ भर दक्षिणेना वसूनि पतिः सिन्धूनाम् असि रेवतीनाम् ॥
त्वम्̇ सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः । इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो ॥
भुवस् त्वम् इन्द्र ब्रह्मणा महान् भुवो विश्वेषु सवनेषु यज्ञियः । भुवो नॄम्̇श् च्यौत्नो विश्वस्मिन् भरे ज्येष्ठश् च मन्त्रः
तै.सं. 7.1.1
य एवं विद्वान् अग्निष्टोमेन यजते प्राजाताः प्रजा जनयति परि प्रजाता गृह्णाति
तस्माद् आहुः ।
ज्येष्ठयज्ञ इति ॥
VERSE: 4
प्रजापतिर् वाव ज्येष्ठः
स ह्य् एतेनाग्रे ऽयजत
प्रजापतिर् अकामयत
प्र जायेयेति
स मुखतस् त्रिवृतं निर् अमिमीत
तम् अग्निर् देवतान्व् असृज्यत गायत्री छन्दो रथंतरम्̇ साम ब्राह्मणो मनुष्याणाम् अजः पशूनाम् ।
तस्मात् ते मुख्याः ।
मुखतो ह्य् असृज्यन्त ।
उरसो बाहुभ्याम् पञ्चदशं निर् अमिमीत
तम् इन्द्रो देवतान्व् असृज्यत त्रिष्टुप् छन्दो बृहत्
VERSE: 5
साम राजन्यो मनुष्याणाम् अविः पशूनाम् ।
तस्मात् ते वीर्यावन्तः ।
वीर्याद् ध्य् असृज्यन्त
मध्यतः सप्तदशं निर् अमिमीत
तं विश्वे देवा देवता अन्व् असृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपम्̇ साम वैश्यो मनुष्याणां गावः पशूनाम् ।
तस्मात् त आद्याः ।
अन्नधानाद् ध्य् असृज्यन्त
तस्माद् भूयाम्̇सो ऽन्येभ्यः ।
भूयिष्ठा हि देवता अन्व् असृज्यन्त
पत्त एकविम्̇शं निर् अमिमीत
तम् अनुष्टुप् छन्दः
VERSE: 6
अन्व् असृज्यत वैराजम्̇ साम शूद्रो मनुष्याणाम्
अश्वः पशूनाम् ।
तस्मात् तौ भूतसंक्रामिणाव् अश्वश् च शूद्रश् च
तस्माच् छूद्रो यज्ञे ऽनवक्लृप्तः ।
न हि देवता अन्व् असृज्यत
तस्मात् पादाव् उप जीवतः
पत्तो ह्य् असृज्येताम्
प्राणा वै त्रिवृत् ।
स य एवं विद्वान् अग्निष्टोमेनोद्गायति प्राजाताः प्रजा जनयति परि प्रजाता गृह्णाति। ज्येष्ठयज्ञो वा एष प्रजापतियज्ञो यद् अग्निष्टोमः। अश्नुते ज्यैष्ठयं श्रैष्ठयं य एवं वेद॥जै.ब्रा. 1.67 ॥
महाव्रतीयम् अहः --तद् आहुस् तम् ईं हिन्वन्त्य् अग्रुव इत्य् एवैतस्याह्नः प्रतिपत् कार्येति। तम् अर्केभिस् तं सामभिर् इति शीर्ष्णस्, तद् इद् आस भुवनेषु ज्येष्ठम् इत्य् आत्मनः। तत् तद् इतीव वा एतेनाह्ना चरन्ति। ततो ह वै प्रजापतिः। ततो ह वा एष सर्वासां देवतानाम्. तत् पितैतद् अहः, प्रजेतराणि। स यथा पुत्रः पितरम् आगत्य तत ततेति ह्वयेत्, तादृक् तत्।– जै.ब्रा. 2.9
तद् इद् आस भुवनेषु ज्येष्ठम् इति रथस्य हैतद् रूपम्। तस्मात् तम् अभिहायैव तिष्ठन्ति। - 2.12
अथैष ज्येष्ठयज्ञः। यो ज्यैष्ठ्यकाम स्यात् स एतेन यजेत। स वा एषो ऽष्टाव् एकविंशान् अभिसंपद्यते। द्वादश मासाः, पञ्चर्तवस्, त्रय इमे लोका, असाव् आदित्य एकविंशः। एष उ ह वा अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। स यो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं स माग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। तस्य सप्तदशाः पवमाना भवन्ति। प्रजापतिर् वै सप्तदशः। प्रजापतिर् वा अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। सो यो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं स माग्रं ज्यैष्ठयं गमयाद् इति। तस्योत्तरावन्ति स्तोत्राणि भवन्ति। उत्तरावतीम् एवैनं तच् छ्रियम् उत्तरावन्तं स्वर्गं लोकं गमयन्ति। तस्य बृहत् पृष्ठं भवति। श्रीर् वै बृहज् ज्यैष्ठ्यम्। अदो वै बृहद् अदो वै ज्यैष्ठ्यम्। तद् एनं तच् छ्रियाम् एव मध्यतो ज्यैष्ठ्ये प्रतिष्ठापयन्ति। तस्य द्वादश स्तोत्राणि भवन्ति। द्वादश मासास् संवत्सरः । संवत्सरो वा अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। स यो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं स माग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। तस्य चतुर्विंशति स्तुतशस्त्राणि भवन्ति। चतुर्विंशत्यर्धमासस् संवत्सरः। संवत्सरो वा अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। स यो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। स यो ज्येष्ठो ज्यैष्ठिनेयस् समग्रिय स्यात्, स एतेन यजेत गच्छति ज्यैष्ठ्यं, न ज्यैष्ठ्याद् अवरोहति ॥जै.ब्रा. 2.97 ॥
ताः पदब्राह्मणा भवन्ति। तद् इद् आस भुवनेषु ज्येष्ठम् इति प्रजापतिर् हि सः। प्रजापतिर् ह्य् एष भुवनेषु ज्येष्ठः। यतो जज्ञ उग्रस् त्वेषनृम्ण इति इन्द्रो हि सः। - 2.144
अथैष कनिष्ठानाम् अग्रकामाणाम्। तस्य त्रिवृतस् सतश् चतुर्विंशं बहिष्पवमानम्। ते ये कनिष्ठा अग्रकामा स्युस् त एतेन यजेरन्। तद् यत् त्रिवृतस् सतश् चतुर्विंशं बहिष्पवमानं भवति - चतुर्विंशत्यर्धमासस् संवत्सरः। संवत्सरो वा अग्रं ज्यैष्ठ्यं - स यो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं स नो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। स त्रिवृद् भवति। त्रिवृद् वै स्तोमानाम् अग्रं ज्य़ैष्ठयम्। स यो ऽग्रं ज्य़ैष्ठ्यं स नो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। स गायत्रीषु भवति। गायत्री वै छन्दसाम् अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। सा याग्रं ज्यैष्ठ्यं सा नो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। तस्य रथन्तरं पृष्ठं भवति। रथन्तरं वै पृष्ठानाम् अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। तद् यद् अग्रं ज्य़ैष्ठ्यं तन् नो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। तस्य द्वादश स्तोत्राणि भवन्ति। द्वादश मासास् संवत्सरः। संवत्सरो वा अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। स यो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं स नो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। तस्य चतुर्विंशति स्तुतशस्त्राणि भवन्ति। चतुर्विंशत्यर्धमासस् संवत्सरः। संवत्सरो वा अग्रं ज्यैष्ठ्यम्। स यो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं स नो ऽग्रं ज्यैष्ठ्यं गमयाद् इति। गच्छन्ति ह कनिष्ठास् सन्तो ज्येष्ठताम्॥जै.ब्रा. 2.227 ॥
तत् सौभरेणोत्तभ्नुवन्ति बृहतस् तेजसा। तद् ऊकारणिधनं भवति। एतद् वै प्रत्यक्षं बृहतो रूपं यद् ऊकारो यद् ईकारः। तेन वै रूपसमृद्धम्। इमम् इन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठम् अमर्त्यं मदम् इति ज्यैष्ठ्यम् इव ह्य् एतर्ह्य् अगच्छन्। अथो तृतीयसवन एवैतद् रसं मदं दधति॥जै.ब्रा. 3.82 ॥
इमां त्वेव शुक्रस्य पुरोरुचं कुर्यात् । तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदमित्यत्ता ह्येतमन्वत्ता हि ज्येष्ठस्तस्मादाह ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदं
अथेन्द्राय ज्येष्ठाय । हायनानां चरुं निर्वपति तदेनमिन्द्र एव ज्येष्ठो ज्यैष्ठ्यमभि परिणयत्यथ यद्धायनानां भवत्यतिष्ठा वा एता ओषधयो यद्धायना अतिष्ठो वा इन्द्रस्तस्माद्धायनानां भवति
१४.९.२.[१]
यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवति प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवत्यपि च येषां बुभूषति य एवं वेद
१४.९.३.[४]
ज्येष्ठाय स्वाहा श्रेष्ठाय स्वाहेति अग्नौ हुत्वा मन्थे संस्रवमवनयति प्राणाय स्वाहा वसिष्ठायै स्वाहेत्यग्नौ चक्षुषे स्वाहा सम्पदे स्वाहेत्यग्नौ श्रोत्राय स्वाहायतनाय स्वाहेत्यग्नौ> मनसे स्वाहा प्रजात्यै स्वाहेत्यग्नौ> रेतसे स्वाहेत्यग्नौ>
ऋषेऽहं ते शतं ददाम्यहमेषामेकेनात्मानं निष्क्रीणा इति स ज्येष्ठम्पुत्रं निगृह्णान उवाच न न्विममिति नो एवेममिति कनिष्ठम्माता तौ ह मध्यमे सम्पादयां चक्रतुः – ऐ.ब्रा. 7.15
<६.३.८> ज्येष्ठयज्ञो वा एष यदग्निष्टोमः
<६.३.९> प्रजापतिः प्रजा असृजत ता अस्मै श्रैष्ठ्याय नातिष्ठन्त स एतमग्निष्टोममपश्यत् तमाहरत् ततोऽस्मै प्रजाः श्रैष्ठ्यायातिष्ठन्त
<७.६.६> यथा वै पुत्रो ज्येष्ठ एवं बृहत् प्रजापतेः
<७.६.७> ज्येष्ठब्राह्मणं वा एतत्
<७.६.८> प्र ज्यैष्ठ्यमाप्नोति य एवंव्वेद
"इममिन्द्र सुतं पिब ज्येष्ठममर्त्यं मदम्"इति ज्यैष्ठं ह्येतर्हि वाचोऽगच्छन् ज्यैष्ठ्यमेवैतया यजमानं गमयन्ति – तां.ब्रा. १२.१२.४
प्रजापतिः प्रजा असृजत ता अस्मात् सृष्टाः पराच्य आयन्नत्स्यति न इति बिभ्यत्यः सोऽब्रवीदुप मा वर्तध्वं तथा वै वोऽत्स्यामि यथाद्यमाना भूयस्यः प्रजनिष्यथ इति ताभ्यो वैनं ऋतं ब्रूहीत्यब्रुवंस्ताभ्य ऋतनिधनेनर्तमब्रवीदीनिधनेनावयत् त्रिणिधनेन प्राजनयदेतैर्ह वा इदं सामभिर्मृत्युः प्रजा अत्ति च प्रजनयति ।1। अद्यमानस्य भूयो भवति य एवं वेद।2। ज्येष्ठसामानि वा एतानि श्रेष्ठसामानि प्रजापतिसामानि।3। गच्छति ज्यैष्ठयं श्रैष्ठयं य एवं वेद।4। एतैर्वै सामभिः प्रजापतिरिमान् लोकान् सर्वान् कामान् दुग्धे यदाच्या दुग्धे तदाच्या दोहानामाच्या दोहत्वम्।5। सर्वानिमान् लोकान् कामान् दुग्धे य एवं विद्वानेतैस्सामभिः स्तुते।6। इमे वै लोका एतानि सामान्ययमेवर्तनिधनमन्तरिक्षमीनिधनं द्यौस्त्रिणिधनम्।7। यथा क्षेत्रज्ञः क्षेत्राण्यनुसञ्चरत्येवमिमान् लोकाननुसञ्चरति य एवं वेद।8। अग्नेर्वा एतानि वैश्वानरस्य सामानि यत्र वा एतैरशान्तैः स्तुवन्ति तत् प्रजा देवो घातुको भवत्यग्निमुपनिधाय स्तुवते स्वाया एव तद्देवतायाः साम्येक्षाय नमस्कृत्योद्गायति शान्तैस्स्तुवन्ति।9। - ताण्ड्य ब्रा. २१.२.१
*तान्य् उत्तरेण ।
अन्व् एषाम् अरात्स्म_इति ।
तद् अनूराधाः ।
ज्येष्ठम् एषाम् अवधिष्म_इति ।
तज् ज्येष्ठघ्नी ।
मूलम् एषाम् अवृक्षाम_इति ।
तन् मूलबर्हणी { मूलवर्हणी} । - तै.ब्रा. 1.5.2.8
* राजसूये देवसुवां हविः
देवसुवाम् एतानि हवीम्̐षि भवन्ति ।
एतावन्तो {एतावन्तौ} वै देवानाम्̐ सवाः ।
त एवास्मै सवान् प्रयच्छन्ति ।
त एनम्̐ सुवन्ते ।
अग्निर् एवैनं गृहपतीनाम्̐ सुवते ।
सोमो वनस्पतीनाम् ।
रुद्रः पशूनाम् ।
बृहस्पतिर् वाचाम् ।
इन्द्रो ज्येष्ठानाम् ।
मित्रः सत्यानाम् । - तै.ब्रा. 1.7.4.1
*तद् घृतम् अभवत् ।
तस्माद् यस्य दक्षिणतः केशा उन्मृष्टाः ।
तां ज्येष्ठलक्ष्मी प्राजापत्या_इत्य् आहुः ।
यद् रराटाद् उदमृष्ट ।
तस्माद् रराटे केशा न सन्ति ।
अनुवाक 8 अग्निहोत्रे दोहनप्रकारः - तै.ब्रा. 2.1.2.5
*दक्षिणत उपसृजति ।
पितृलोकम् एव तेन जयति ।
प्राचीम् आवर्तयति ।
देवलोकम् एव तेन जयति ।
उदीचीम् आव्रत्य {आवृत्य} दोग्धि ।
मनुष्यलोकम् एव तेन जयति ।
पूर्वौ दुह्याज् ज्येष्ठस्य ज्यैष्ठिनेयस्य ।
यो वा गतश्रीः {ऽऽगतश्रीः} स्यात् ।
अपरौ दुह्यात् कनिष्ठस्य कानिष्ठिनेयस्य ।
यो वा बुभूषेत् । - तै.ब्रा. 2.1.8.8
*अपां भूमानम् उप नः सृज_इह ।
यज्ञ प्रतितिष्ठ सुमतौ सुशेवा आ त्वा ।
वसूनि पुरुधा विशन्तु ।
दीर्घम् आयुर् यजमानाय कृण्वन् ।
अधामृतेन {BI अथामृतेन} जरितारम् अङ्ग्धि{BI अङ्धि} ।
इन्द्रः शुनावद् वितनोति सीरम् ।
संवत्सरस्य प्रतिमाणम् एतत् ।
अर्कस्य ज्योतिस् तद् इद् आस ज्येष्ठम् ।
संवत्सरम्̐ शुनवत् सीरम् एतत् । - तै.ब्रा. 2.5.8.12
*आ चर्षणिप्रा, विवेष यन् मा ।
तम्̐ सध्रीचीः ।
सत्यम् इत् तन् न त्वावाम्̐ अन्यो अस्ति ।
इन्द्र देवो न मर्त्यो ज्यायान् ।
अहन्न् अहिं परिशयानम् अर्णः ।
अवासृजो ऽपो अच्छा समुद्रम् ।
प्रससाहिषे पुरुहूत शत्रून् ।
ज्येष्ठस् ते शुष्म इह रातिर् अस्तु ।
इन्द्र_आभर दक्षिणेना वसूनि ।
पतिः सिन्धूनाम् असि रेवतीनाम् ।
स शेवृधम् अधिधा द्युम्नम् अस्मे । - तै.ब्रा. 2.6.9.1
*अन्तर् विश्वम् इदं जगत् ।
ब्रह्म_एव भूतानां ज्येष्ठम् ।
तेन को ऽर्हति स्पर्धितुम् ।
ब्रह्मन् देवास् त्रयस्त्रिम्̐शत् ।
ब्रह्मन्न् इन्द्रप्रजापती । - तै.ब्रा. 2.8.8.10
*सजित्वानम्̐ सदासहम् ।
वर्षिष्ठमूतये भर ।
प्र ससाहिषे पुरुहूत शत्रून् ।
ज्येष्ठस् ते शुष्म इह रातिर् अस्तु ।
इन्द्र_आभर दक्षिणेना वसूनि ।
पतिः सिन्धूनाम् असि रेवतीनाम् । - तै.ब्रा. 3.5.7.4
यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च ह वै श्रेष्ठश्च भवति ।
प्राणो वाव ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ॥ छा.उ. ५,१.१ ॥
अन्न हि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात् सर्वौषधमुच्यते । सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति । येऽन्नं ब्रह्मोपासते । अन्न हि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात् सर्वौषधमुच्यते । - तैत्तिरीय उपनि.
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् । ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रुण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् । इत्येवमाद्यमक्षरं तदन्त्यबिन्दुपूर्णमित्यनेनाङ्गं स्पृशति । - त्रिपुरातापिन्युपनिषद
स निन्दामर्ष- सहिष्णुः । स षडूर्मिवर्जितः । षड्भावविकारशून्यः । स ज्येष्ठाज्येष्ठ- व्यवधानरहितः । स स्वव्यतिरेकेण नान्यद्रष्टा । - परमहंसपरिव्राजकोपनिषद
अथ वसिष्ठवंशजस्य शतभार्यासमेतस्य धनञ्जयस्य ब्राह्मणस्य ज्येष्ठभार्यापुत्रः करुण इति नाम तस्य शुचिस्मिता भार्या । असौ करुणो भ्रातृवैरमसहमानो भवानीतटस्थं नृसिंहमगमत् । तत्र देवसमीपेऽन्येनोपायनार्थं समर्पितं जम्बीरफलं गृहीत्वाजिघ्रत्तदा तत्रस्था अशपन्पाप मक्षिको भव वर्षाणां शतमिति । सोऽपि शापमादाय मक्षिकः सन्स्वचेष्टितं तस्यै निवेद्य मां रक्षेति स्वभार्यामवदत्तदा मक्षिकोऽभवत्तमेवं ज्ञात्वा ज्ञातयस्तैलमध्ये ह्यमारयन्त्सा मृतं पतिमादायारुन्धतीमगमद्भो शुचिस्मिते शोकेनालमरुन्धत्याहामुं जीवयाम्यद्य विभूतिमादायेति एषाग्निहोत्रजं भस्म ॥ मृत्युञ्जयेन मन्त्रेण मृतजन्तौ तदाक्षिपत् । - बृहज्जाबालोपनिषद
यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवति ।
प्राणो वै ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च ।
ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च स्वानां भवति ।
अपि च येषां बुभूषति ।
य एवं वेद ॥ बृहदारण्यकोपनिषद ६,१.१ ॥
अन्नमेव विजरन्नमन्नं संवननं स्मृतम् । अन्नं पशूनां प्राणोऽन्नं ज्येष्ठमन्नं भिषक् स्मृतम् ॥ १३॥ - मैत्रायण्युपनिषद
तद्विग्रहविशेषाः स्युरेते ज्येष्ठदिनामकाः । वामदेव्यादिशक्तीनां नवानां शिवपीठके ॥ ३४२॥ - याज्ञिकोपनिषद
*प्रदक्षिणमुपावृत्य ज्येष्ठस्थानं व्रजेन्नरः |
अभिगम्य महादेवं विराजति यथा शशी ||५९|| - वन 3.85.
अभिजित्स्पर्धमाना तु रोहिण्या कन्यसी स्वसा |
इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता ||८|| - वन 3.230
*पुरस्ताच्चैव देवस्य नन्दिं पश्याम्यवस्थितम् |
शूलं विष्टभ्य तिष्ठन्तं द्वितीयमिव शङ्करम् ॥१४४॥
स्वायम्भुवाद्या मनवो भृग्वाद्या ऋषयस्तथा |
शक्राद्या देवताश्चैव सर्व एव समभ्ययुः ॥१४५॥
तेऽभिवाद्य महात्मानं परिवार्य समन्ततः |
अस्तुवन्विविधैः स्तोत्रैर्महादेवं सुरास्तदा ॥१४६॥
ब्रह्मा भवं तदा स्तुन्वन्रथन्तरमुदीरयन् |
ज्येष्ठसाम्ना च देवेशं जगौ नारायणस्तदा ॥१४७॥ अनु. 13.14.
*शरीरमिह सत्त्वेन नरस्य परिकृष्यते |
ज्येष्ठमध्यावरं सत्त्वं तुल्यसत्त्वं प्रमोदते ॥४६॥ - अनु. 13.48.
*वेदे चास्य विदुर्विप्राः शतरुद्रीयमुत्तमम् |
व्यासादनन्तरं यच्चाप्युपस्थानं महात्मनः ॥२३॥
प्रदाता सर्वलोकानां विश्वं चाप्युच्यते महत् |
ज्येष्ठभूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा ऋषयोऽपरे ॥२४॥ - अनु. 13.161.
*प्राणेन सम्भृतो वायुरपानो जायते ततः |
अपाने सम्भृतो वायुस्ततो व्यानः प्रवर्तते ॥४॥
व्यानेन सम्भृतो वायुस्ततोदानः प्रवर्तते |
उदाने सम्भृतो वायुः समानः सम्प्रवर्तते ॥५॥
तेऽपृच्छन्त पुरा गत्वा पूर्वजातं प्रजापतिम् |
यो नो ज्येष्ठस्तमाचक्ष्व स नः श्रेष्ठो भविष्यति ॥६॥ - आश्वमेधिक 14.23.