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ताल

टिप्पणी :- ताल शब्द का रहस्य संगीत शास्त्र में ताल के माध्यम से समझा जा सकता है। ताल को अवनद्ध(चर्म से आच्छादित) वाद्ययन्त्रों जैसे तबला, ढोलक आदि द्वारा व्यक्त किया जाता है। जिस प्रकार की घटना घट रही हो, उसी प्रकार के शब्द को ताल के माध्यम से प्रकट किया जा सकता है। करतल से वाद्ययन्त्र के पर्दे पर ताडन में दो ताडनों के बीच कितना अन्तर है, इस आधार पर शब्द के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है। जैसा कि विमला मुसलगाँवकर की पुस्तक “भारतीय संगीतशास्त्र का दर्शनपरक अनुशीलन”(सारसंक्षेप) में उल्लेख है, ताल की उत्पत्ति हमारे स्थूल शरीर से होती है। अवनद्ध वाद्य हमारे पेट आदि अङ्गों का प्रतीक हो सकते हैं। स्थूल शरीर से स्थूल व्यञ्जन क, ख आदि ही प्रकट हो सकते हैं, अ, आ आदि स्वर नहीं। दूसरी ओर वीणा आदि यन्त्र हैं जिनके माध्यम से स्थूलता से रहित स्वरों को ही प्रकट किया जा सकता है, व्यञ्जनों को नहीं।

     पुराण कथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ताल की पहली अवस्था तार या तारकासुर है जिसका वध केवल स्कन्द की शक्ति से ही हो पाया। शक्ति अव्यक्त स्थिति को प्रकृति के स्तर पर व्यक्त करने का, चारों दिशाओं में, तिर्यक् स्थिति में फैलाने का एक माध्यम है। तार स्थिति फैलने पर ताल बनती होगी, यह कहा जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि स्कन्द कार्तिकेय व्याकरण के भी आदि प्रवर्तक हैं। व्याकरण का अर्थ हुआ – जो वाक् अभी तक अव्याकृत स्थिति में थी, उसे व्याकृत स्थिति में लाना। वाक् के चार रूप कहे जाते हैं – परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी। अन्तरात्मा की आवाज प्रायः परा स्थिति में ही रहती है, उसे वैखरी स्थिति तक लाने की आवश्यकता है। पद्म पुराण में गीता के आठवें अध्याय के माहात्म्य के संदर्भ में कुमति – पति भावशर्मा ब्राह्मण के ताल वृक्ष बनने और उद्धार होने की कथा से संकेत मिलता है कि ताल स्थिति से अगला विकास यह हो सकता है कि अपने किसी भाव का विस्तार केवल स्थूल स्तर तक ही सीमित नहीं रखना है, अपितु उसे सूक्ष्म स्तरों तक भी ले जाना है।

 

संदर्भ

*नामं उवणा दविए, तालो भावे य होइ नायव्वो। जो भविओ सो तालो, दव्वे मूलुत्तरगुणेसु॥

नामतालः, स्थापनातालः, द्रव्यतालः, भावतालश्च भवति ज्ञातव्यः।तत्र नामस्थापने क्षुन्ने। द्रव्यतालः पुनरयम् – (जो भविओ त्ति) यः खलु भव्यो भावतालपर्यायः, स च त्रिधाएकभविको, बद्धाऽऽयुष्कः, अभिमुखनामगोत्रश्च। तत्रैकभविको नाम – यो विवक्षितभवानन्तरं तालत्वेनोत्पत्स्यते। बद्धाऽऽयुष्को – येन तालोत्पत्तिप्रायोग्यमायुःकर्मबद्धम्। अभिमुखनामगोत्रः पुनः – विपाकोदयाभिमुखतालसंबन्धिनामगोत्रकर्मा तलात्वेनोत्पित्सया विवक्षितजीवप्रदेशः। यद्वा – द्रव्यतालो द्विविधः – मूलगुणनिवर्त्तितः, उत्तरगुणनिवर्त्तितश्च। तत्र स्वायुषः परिक्षयादपगतजीवो यः स्कन्धाऽऽदिरूपस्तालः स मूलगुणनिवर्त्तितः। यस्तु काष्ठचित्रकर्माऽऽदिष्वालिखितः स उत्तरगुणनिवर्तितः। एष द्रव्यतालः।

भावतालम् –

भावस्मि होंति जीवा, जे तस्स परिग्गहे समक्खाया। बीओ वि य आदेसो, जो तस्स वि जाणओ पुरिसो॥

भावे भावविषयस्तालो ये जीवास्तस्य तालस्य परिग्रहे मूलकन्दाऽऽदिगतास्ते सर्वेऽपि समुदिताः सन्तो भावताल इति समाख्याताः, नोआगमन इति भावः। द्वितीयोऽप्यत्राऽऽदेशोऽस्ति यस्तस्य तालस्य विज्ञायकस्त्वभियुक्तः पुरुषः सोऽपि भावताल उच्यते, आगमत इत्यर्थः। अत्र च नोआगमतो भावतालेनाधिकारः, तस्य संबन्धि यत्फलं तदिह तालशब्देन प्रत्येतव्यम्। बृ० उ०। स०। आ० म०। प्रज्ञा०। स्था०। भ०। औ०। प्रश्न०।ज्ञा०। - अभिधानराजेन्द्र कोष   

प्रथम लेखन – १०.१.२०१२ई.(माघ कृष्ण प्रतिपदा, विक्रम संवत् २०६८)

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